ऊधौ कौ उपदेस सुनौ किन कान दै।
हरि निर्गुन संदेस पठायौ आन दै।।
कोउ आवत उहि ओर जहाँ नँदसुवन पधारे।
वहै बेनु धुनि होइ, मनी आए व्रज प्यारे।।
धाई सब गलगाजि कै, ऊधौ देखे जाइ।
लै आई व्रजराज गृह, आनँद उर न समाइ।।
अर्ध आरनी साजि तिलक दधि माथै कीन्यौ।
कंचन कमल भराइ और परिकरमा दीन्यौ।।
गोप भीर आँगन भई, मिलि बैठी सब जाति।
जलझारी आगै धरी, पूछन हरि कुसलाति।।
कुसल छेम वसुदेव कुसल देवै बलदाऊ।
कुसल छेम अक्रूर कुसल नीकै कुबिजाऊ।।
पूछि कुसल गोपाल की, रहे सबै गहि पाइ।
प्रेम मगन ऊधौ भए, देखन व्रज के भाइ।।
मन मन ऊधौ कही, वौ न वूझियै गोपा लहि।
व्रज कौ हेत बिसारि, जोग सिखवत व्रजबालहिं।।