ऊधौ औरे कान्ह भए।
जब तै यह ब्रज छाँड़ि मधुपुरी, कुबिजा धाम गए।।
कै वह प्रीति रीति गोकुल बसि, दुख सुख सब निरवाहत।
अब यह करत वियोग देह द्रुम, सुनत काम द्रव दाहत।।
जहँ स्वारथ तहँ सगुन साँवरौ, निरगुन कपट सुनावत।
‘सूर’ सुमिरि ब्रजनाथ आपनै, कत न परेखौ आवत।।4020।।