ऊधौ अब हम समुझि भई।
नंदनँदन के अंग-अंग-प्रति, उपमा न्याय दई।।
कुंतल कुटिल भँवर भामिनि बर, मालति भुरै लई।
तजत न गहरू कियौ तिन कपटी, जानी निरस भई।।
आनन इंदु बिमुख संपुट तजि, करषे तै न नई।
निर्मोही नव नेह कुमुदिनी, अंतहु हेम हई।।
तन-घन-सजल सेइ निसिबासर, रटि रसना छिजई।
‘सूर’ विवेकहीन चातक मुख, बूदौ तौ न स्रई।।3918।।