कोऊ कहे रे मधुप भेष उनही कौ धारयौ
स्याम पीत गुंजार बैन किंकिनि झनकारयौ
वा पुर गोरस चोरिकै, फिरि आयो यहि देस
इनको जनि मानहुं कोऊ, कपटी इनको भेस
चोरि जनि जय कछु
कोऊ कहे रे मधुप कहा तू रस को जाने
बहुत कुसुम पै बैठ सबै आपन सम माने
आपन सम हमकों कियो चाहत है मति मंद
दुबिध ज्ञान उपजायके, दुखित प्रेम आनन्द
कपट के छंद सों
कोऊ कहे रे मधुप प्रेम षट्पद पसु देख्यो
अबलौं यहि ब्रजदेस माहि कोऊ नहि विसेख्यो
द्वै सिंग आनन ऊपर ते, कारो पिरो गात
खल अमृत सम मानहीं अमृत देखि डरात
बादि यह रसिकता