ऊखल बंधन लीला

श्रीकृष्ण को ऊखल से बाँधतीं माँ यशोदा

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्री शुकदेव जी कहते हैं- "परीक्षित! एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदाजी ने घर की दासियों को तो दूसरे कामों में लगा दिया और स्वयं[2] दही मथने लगीं।[3] बालकृष्ण जो भी लीलाएँ कर रहे थे, दधिमंथन के समय वे उन सबका स्मरण करतीं और गातीं भी जाती थीं।[4] वे अपने स्थूल कटिभाग में सूत से बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थीं। उनके स्तनों में से पुत्र-स्नेह की अधिकता से दूध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे। नेती खींचते रहने से बाँहें कुछ थक गयी थीं। हाथों में कंगन और कानों में कर्णफूल हिल रहे थे। मुँह पर पसीने की बूँदें झलक रहीं थीं। चोटी में गुँथे हुए मालती के सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे। सुन्दर भौंहों वाली यशोदा इस प्रकार दही मथ रहीं थीं।[5]

उसी समय भगवान श्रीकृष्ण स्तन पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आये। उन्होंने अपनी माता के हृदय में प्रेम और आनन्द को और भी बढ़ाते हुए दही की मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथने से रोक दिया।[6] श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गये। वात्सल्य-स्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध तो स्वयं झर ही रहा था। वे उन्हें पिलाने लगीं और मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त उनका मुख देखने लगीं। इतने में ही दूसरी ओर अँगीठी पर रखे हुए दूध में उफान आया। उसे देखकर यशोदा जी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गयीं।[7] इससे श्रीकृष्ण को कुछ क्रोध आ गया। उनके लाल-लाल होंठ फड़कने लगे। उन्हें दाँतों से दबाकर श्रीकृष्ण ने पास ही पड़े हुए लोढ़े से दही का मटका फोड़फाड़ डाला, बनावटी आँसू आँखों में भर लिये और दूसरे घर में जाकर अकेले में बासी माखन खाने लगे।[8] यशोदा जी औटे हुए दूध को उतारकर[9] फिर मथने के घर में चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दही का मटका (कमोरा) टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि सब सब मेरे लाला की ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं। इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदा रानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची।[10]

जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ हाथ में छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रही हैं, तब झट से ओखली पर से कूद पड़े और डरे हुए की भाँति भागे। परीक्षित! बड़े-बड़े योगी तपस्या के द्वारा अपने मन को अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पाने की बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान के पीछे-पीछे उन्हें पकड़ने के लिये यशोदा जी दौड़ीं।[11] जब इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण के पीछे दौड़ने लगीं, तब कुछ ही देर में बड़े-बड़े एवं हिलते हुए नितम्बों के कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी। वेग से दौड़ने के कारण चोटी की गाँठ ढीली पड़ गयी। वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती, पीछे-पीछे चोटी में गुँथे हुए फूल गिरते जाते। इस प्रकार सुन्दरी यशोदा ज्यों-त्यों करके उन्हें पकड़ सकीं।[12]

श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने-धमकाने लगीं। उस समय श्रीकृष्ण की झाँकी बड़ी विलक्षण हो रही थी। अपराध तो किया ही था, इसलिये रुलाई रोकने पर भी न रुकती थी। हाथों से आँखें मल रहे थे, इसलिए मुँह पर काजल की स्याही फ़ैल गयी थी, पिटने के भय से आँखें ऊपर की ओर उठ गयी थीं। उनसे व्याकुलता सूचित होती थी।[13]

जब यशोदा जी ने देखा कि लल्ला बहुत डर गया है, तब उनके हृदय में वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया। उन्होंने छड़ी फ़ेंक दी। इसके बाद सोचा कि इसको एक बार रस्सी से बाँध देना चाहिए।[14] परीक्षित! सच पूछो तो यशोदा मैया को अपने बालक के ऐश्वर्य का पता नहीं था।[15]

जिसमें न बाहर है न भीतर, न आदि है और न अन्त; जो जगत के पहले भी थे, बाद में भी रहेंगे, इस जगत के भीतर तो हैं ही, बाहरी रूपों में भी हैं; और तो क्या, जगत के रूप में भी स्वयं वही हैं;[16] यही नहीं, जो समस्त इन्द्रियों से परे और अव्यक्त हैं-उन्हीं भगवान को मनुष्य का-सा रूप धारण करने के कारण पुत्र समझकर यशोदारानी रस्सी से ऊखल में ठीक वैसे ही बाँध देंतीं हैं, जैसे कोई साधारण-सा बालक।[17] हो। जब माता यशोदा अपने ऊधमी और नटखट लड़के को रस्सी से बाँधने लगीं, तब वह रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ गयी। तब उन्होंने दूसरी रस्सी लाकर उसमें जोड़ी। यशोदा माता ज्यों-ज्यों अपने स्नेह, ममता आदि गुणों [18] से श्रीकृष्ण का पेट भरने लगीं, त्यों-त्यों अपनी नित्यमुक्ता, स्वतन्त्रता आदि सद्गुणों से भगवान अपने स्वरूप को प्रकट करने लगे। जब वह भी छोटी हो गयी, तब उसके साथ और जोड़ी।

  1. संस्कृत-साहित्य में ‘गुण’ शब्द के अनेक अर्थ हैं- सद्गुण, सत्त्व आदि गुण और रस्सी। सत्त्व, रज आदि गुण भी अखिल ब्रह्माण्डनायक त्रिलोकी नाथ भगवान का स्पर्श नहीं कर सकते। फिर यह छोटा-सा गुण[19]उन्हें कैसे बाँध सकता है। यही कारण है कि यशोदा माता की रस्सी पूरी नहीं पड़ती थी।
  2. संसार के विषय इन्द्रियों को ही बाँधने में समर्थ हैं - विषिण्वन्ति इति विषयाः। ये हृदय में स्थित अन्तर्यामी और साक्षी को नहीं बाँध सकते। तब गो-बन्धक [20] रस्सी गो-पति [21] को कैसे बाँध सकती है?
  3. वेदान्त के सिद्धान्तानुसार अध्यस्त में ही बन्धन होता है, अधिष्ठान में नहीं। भगवान श्रीकृष्ण का उदर अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों का अधिष्ठान है। उसमें भला बन्धन कैसे हो सकता है?
  4. भगवान जिसको अपनी कृपा प्रसाद पूर्ण दृष्टि से देख लेते हैं, वही सर्वदा के लिये बन्धन से मुक्त हो जाता है। यशोदा माता अपने हाथ में जो रस्सी उठातीं, उसी पर श्रीकृष्ण की दृष्टि पड़ जाती। वह स्वयं मुक्त हो जाती, फिर उसमें गाँठ कैसे लगती?
  5. कोई साधक यदि अपने गुणों के द्वारा भगवान को रिझाना चाहे तो नहीं रिझा सकता। मानो यही सूचित करने के लिये कोई भी गुण (रस्सी) भगवान के उदर को पूर्ण करने में समर्थ नहीं हुआ।</ref>, इस प्रकार वे ज्यों-ज्यों रस्सी लातीं और जोड़तीं गयीं, त्यों-त्यों जुड़ने पर भी वे सब दो-दो अंगुल छोटी पड़ती गयीं।[22]

यशोदारानी ने घर की सारी रस्सियाँ जोड़ डालीं, फिर भी वे भगवान श्रीकृष्ण को न बाँध सकीं। उनकी असफलता पर देखने वाली गोपियाँ मुस्कराने लगीं और वे स्वयं भी मुस्कराती हुई आश्चर्यचकित हो गयीं।[23] भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ का शरीर पसीने से लथपथ हो गया है, चोटी में गुँथी हुई मालाएँ गिर गयीं हैं और वे बहुत थक भी गयीं हैं; तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी माँ के बंधन में बंध गये।[24]

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण परम स्वन्तन्त्र हैं। ब्रह्मा, इन्द्र आदि के साथ यह सम्पूर्ण जगत उनके वश में है। फिर भी इस प्रकार बँधकर उन्होंने संसार को यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तों के वश में हूँ।[25] ग्वालिनी यशोदा ने मुक्तिदाता मुकुन्द से जो कुछ अनिर्वचनीय कृपाप्रसाद प्राप्त किया, वह प्रसाद ब्रह्मा पुत्र होने पर भी, शंकर आत्मा होने पर भी और वक्षःस्थल पर विराजमान लक्ष्मी अर्धांगिनी होने पर भी न पा सके।[26] यह गोपिकानंदन भगवान अनन्यप्रेमी भक्तों के लिए जितने सुलभ हैं, उतने देहाभिमानी कर्मकाण्डी एवं तपस्वियों को तथा अपने स्वरूप भूत ज्ञानियों के लिए भी नहीं हैं।[27] इसके बाद नन्दरानी यशोदा जी तो घर के काम-धंधों में उलझ गयीं और ऊखल में बंधे हुए भगवान श्यामसुन्दर ने उन दोनों अर्जुन वृक्षों को मुक्ति देने की सोची, जो पहले यक्षराज कुबेर के पुत्र थे।[28] इनके नाम थे- 'नलकूबर' और मणिग्रीव'। इनके पास धन, सौन्दर्य और ऐश्वर्य की पूर्णता थी। इनका घमण्ड देखकर ही देवर्षि नारदजी ने इन्हें शाप दे दिया था और ये वृक्ष हो गये थे।[29]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 9, श्लोक 1-23
  2. अपने लाला को मक्खन खिलाने के लिए
  3. इस प्रसंग में ‘एक समय’ का तात्पर्य है कार्तिक मास। पुराणों में इसे ‘दामोदर मास’ कहते हैं। इन्द्रयाग के अवसर पर दासियों का दूसरे कामों में लग जाना स्वाभाविक है। ‘नियुक्तासु’, इस पद से ध्वनित होता है कि यशोदा माता ने जान-बूझकर दासियों को दूसरे काम में लगा दिया। ‘यशोदा’ नाम उल्लेख करने का अभिप्राय यह है कि अपने विशुद्ध वात्सल्य प्रेम के व्यवहार से षडैश्वर्यशाली भगवान को भी प्रेमाधीनता, भक्तवश्यता के कारण अपने भक्तों के हाथों बँध जाने का ‘यश’ यही देती हैं। गोपराज नन्द के वात्सल्य प्रेम के आकर्षण से सच्चिदानन्द-परमानन्दस्वरूप श्रीभगवान नन्दनन्दन रूप से जगत में अवतीर्ण होकर जगत के लोगों को आनन्द प्रदान करते हैं। जगत को इस अप्राकृत परमानन्दस्वरूप का रसास्वादन कराने में नन्दबाबा ही कारण हैं। उन नन्द की गृहिणी होने से उन्हें ‘नन्दगोहिनी’ कहा गया है। साथ ही ‘नन्दगोहिनी’ और ‘स्वयं’-ये दो पद इस बात के सूचक हैं कि दधि मन्थन कर्म उनके योग्य नहीं है। फिर भी पुत्र-स्नेह की अधिकता से यह सोचकर कि मेरे लाला को मेरे हाथ का माखन ही भाता है, वे स्वयं ही दधि मथ रही हैं।
  4. इस श्लोक में भक्त के स्वरूप का निरूपण है। शरीर से दधि मन्थन रूप सेवा कर्म हो रहा है, हृदय में स्मरण की धारा सतत प्रवाहित हो रही है, वाणी में बाल-चरित्र का संगीत। भक्त के तन, मन, वचन-सब अपने प्यारे की सेवा में संलग्न हैं। स्नेह अमूर्त पदार्थ है; वह सेवा के रूप में ही व्यक्त होता है। स्नेह के ही विलास विशेष हैं-नृत्य और संगीत। यशोदा मैया के जीवन में इस समय राग और भोग दोनों ही प्रकट हैं।
  5. कमर में रेशमी लहँगा डोरी से कसकर बँधा हुआ है अर्थात जीवन में आलस्य, प्रमाद, असावधानी नहीं है। सेवा कर्म में पूरी तत्परता है। रेशमी लहँगा इसीलिये पहने हैं कि किसी प्रकार की अपवित्रता रह गयी तो मेरे कन्हैया को कुछ हो जायगा। माता के हृदय का रसस्नेह-दूध स्तन के मुँह आ लगा है, चुचुआ रहा है, बाहर झाँक रहा है। श्यामसुन्दर आवें, उनकी दृष्टि पहले मुझ पर पड़े और वे पहले माखन न खाकर मुझे ही पीवें- यही उसकी लालसा है। स्तन के काँपने का अर्थ यह है कि उसे डर भी है कि कहीं मुझे नहीं पिया तो। कंकण और कुण्डल नाच-नाचकर मैया को बधाई दे रहे हैं। यशोदा मैया के हाथों के कंकण इसलिये झंकार ध्वनि कर रहे हैं कि वे आज उन हाथों में रहकर धन्य हो रहे हैं कि जो हाथ भगवान की सेवा में लगे हैं और कुण्डल यशोदा मैया के मुख से लीला-गान सुनकर परमानन्द से हिलते हुए कानों की सफलता की सूचना दे रहे हैं। हाथ वही धन्य हैं, जो भगवान की सेवा करें और कान वे धन्य हैं, जिनमें भगवान के लीला-गुण-गान की सुधा धारा प्रवेश करती रहे। मुँह पर स्वेद और मालती के पुष्पों के नीचे गिरने का ध्यान माता को नहीं है। वह श्रृंगार और शरीर भूल चुकी हैं अथवा मालती के पुष्प स्वयं ही चोटियों से छूटकर चरणों में गिर रहे हैं कि ऐसी वात्सल्यमयी माँ के चरणों में ही रहना सौभाग्य है, हम सिर पर रहने के अधिकारी नहीं।
  6. हृदय में लीला की सुख स्मृति, हाथों से दधि मन्थन और मुख से लीलागान - इस प्रकार मन, तन, वचन तीनों का श्रीकृष्ण के साथ एकतान संयोग होते ही श्रीकृष्ण जगकर ‘माँ-माँ’ पुकारने लगे। अब तक भगवान श्रीकृष्ण सोये हुए-से थे। माँ की स्नेह-साधना ने उन्हें जगा दिया। वे निर्गुण से सगुण हुए, अचल से चल हुए, निष्काम से सकाम हुए; स्नेह के भूखे-प्यासे माँ के पास आये। क्या ही सुन्दर नाम है- ‘स्तन्यकाम’! मन्थन करते समय आये, बैठी-ठाली के पास नहीं। सर्वत्र भगवान साधन की प्रेरणा देते हैं, अपनी ओर आकृष्ट करते हैं; परन्तु मथानी पकड़ कर मैया को रोक लिया। ‘माँ! अब तेरी साधना पूर्ण हो गयी। पिष्ट-पेषण करने से क्या लाभ? अब मैं तेरी साधना का इससे अधिक भार नहीं सह सकता।’ माँ प्रेम से दब गयी-निहाल हो गयी-मेरा लाला मुझे इतना चाहता है।
  7. मैया मना करती रही- "नेक-सा माखन तो निकाल लेने दे।" ‘ऊँ-ऊँ-ऊँ, मैं तो दूध पीऊँगा’- दोनों हाथों से मैया की कमर पकड़कर एक पाँव घुटने पर रखा और गोद में चढ़ गये। स्तन का दूध बरस पड़ा। मैया दूध पिलाने लगीं, लाला मुस्कराने लगे, आँखें मुस्कान पर जम गयीं। ‘ईक्षती’ पद का यह अभिप्राय है कि जब लाला मुँह उठाकर देखेगा और मेरी आँखें उस पर लगी मिलेंगी, तब उसे बड़ा सुख होगा। सामने पद्मगन्धा गाय का दूध गरम हो रहा था। उसने सोचा- "स्नेहमयी माँ यशोदा का दूध कभी कम न होगा, श्यामसुन्दर की प्यास कभी बुझेगी नहीं। उनमें परस्पर होड़ लगी है। मैं बेचारा युग-युग का, जन्म-जन्म का श्यामसुन्दर के होंठों का स्पर्श करने के लिये व्याकुल तप-तपकर मर रहा हूँ। अब इस जीवन से क्या लाभ जो श्रीकृष्ण के काम न आवे। इससे अच्छा है उनकी आँखों के सामने आग में कूद पड़ना।" माँ के नेत्र पहुँच गये। दयार्द्र माँ को श्रीकृष्ण का भी ध्यान न रहा; उन्हें एक ओर डालकर दौड़ पड़ीं। भक्त भगवान को एक ओर रखकर भी दुःखियों की रक्षा करते हैं। भगवान अतृप्त ही रह गये। क्या भक्तों के हृदय-रस से, स्नेह से उन्हें कभी तृप्ति हो सकती है? उसी दिन से उनका एक नाम हुआ ‘अतृप्त’।
  8. श्रीकृष्ण के होंठ फड़के। क्रोध होंठों का स्पर्श पाकर कृतार्थ हो गया। लाल-लाल होंठ श्वेत-श्वेत दूध की दन्तुलियों से दबा दिये गये, मानो सत्त्वगुण रजोगुण पर शासन कर रहा हो, ब्राह्मण, क्षत्रिय को शिक्षा दे रहा हो। वह क्रोध उतरा दधि मन्थन के मटके पर। उसमें एक असुर आ बैठा था। दम्भ ने कहा- "काम, क्रोध और अतृप्ति के बाद मेरी बारी है। वह आँसू बनकर आँखों में छलक आया। श्रीकृष्ण अपने भक्तजनों के प्रति अपनी ममता की धारा उड़ेलने के लिये क्या-क्या भाव नहीं अपनाते ? ये काम, क्रोध, लोभ और दम्भ भी आज ब्रह्म-संस्पर्श प्राप्त करके धन्य हो गये! श्रीकृष्ण घर में घुसकर बासी मक्खन गटकने लगे, मानो माँ को दिखा रहे हों कि मैं कितना भूखा हूँ। प्रेमी भक्तों के ‘पुरुषार्थ’ भगवान नहीं हैं, भगवान की सेवा है। ये भगवान की सेवा के लिये भगवान का भी त्याग कर सकते हैं। मैया के अपने हाथों दुहा हुआ यह पद्मगन्धा गायों का दूध श्रीकृष्ण के लिये ही गरम हो रहा था। थोड़ी देर के बाद ही उनको पिलाना था। दूध उफन जायगा तो मेरे लाला भूखे रहेंगे-रोयेंगे, इसीलिये माता ने उन्हें नीचे उतारकर दूध को सँभाला।
  9. यशोदा माता दूध के पास पहुँचीं। प्रेम का अद्भुत दृश्य! पुत्र को गोद से उतार कर उसके पेय के प्रति इतनी प्रीति क्यों ? अपनी छाती का दूध तो अपना है, वह कहीं जाता नहीं। परन्तु यह सहस्रों छटी हुई गायों के दूध से पालित पद्मगन्धा गाय का दूध फिर कहाँ मिलेगा ? वृन्दावन का दूध अप्राकृत, चिन्मय, प्रेम जगत का दूध-माँ को आते देखकर शर्म से दब गया। ‘अहो! आग में कूदने का संकल्प करके मैंने माँ के स्नेहानन्द में कितना बड़ा विघ्न कर डाला ? और माँ अपना आनन्द छोड़कर मेरी रक्षा के लिये दौड़ी आ रही हैं। मुझे धिक्कार है।’ दूध का उफनना बंद हो गया और वह तत्काल अपने स्थान पर बैठ गया।
  10. ‘माँ! तुम अपनी गोद में नहीं बैठाओगी तो मैं किसी खल की गोद में जा बैठूँगा"- यही सोचकर मानो श्रीकृष्ण उलटे ऊखल के ऊपर जा बैठे। उदार पुरुष भले ही खलों की संगति में जा बैठें, परन्तु उनका शील-स्वभाव बदलता नहीं है। ऊखल पर बैठकर भी वे बन्दरों को माखन बाँटने लगे। सम्भव है रामावतार के प्रति जो कृतज्ञता का भाव उदय हुआ था, उसके कारण अथवा अभी-अभी क्रोध आ गया था, उसका प्रायश्चित करने के लिये। श्रीकृष्ण के नेत्र हैं ‘चौर्यविशंकित’ ध्यान करने योग्य। वैसे तो उनके ललित, कलित, छलित, बलित, चकित आदि अनेकों प्रकार के ध्येय नेत्र हैं, परन्तु ये प्रेमीजनों के हृदय में गहरी चोट करते हैं।
  11. भयभीत होकर भागते हुए भगवान हैं। अपूर्व झाँकी है। ऐश्वर्य को तो मानो मैया के वात्सल्य प्रेम पर न्योछावर करके ब्रज के बाहर ही फेंक दिया है। कोई असुर अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो सुदर्शन चक्र का स्मरण करते। मैया की छड़ी का निवारण करने के लिये कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं। भगवान की यह भयभीत मूर्ति कितनी मधुर है। धन्य है इस भय को।
  12. माता यशोदा के शरीर और श्रृंगार दोनों ही विरोधी हो गये। तुम प्यारे कन्हैया को क्यों खदेड़ रही हो, परन्तु मैया ने पकड़कर ही छोड़ा।
  13. विश्व के इतिहास में, भगवान के सम्पूर्ण जीवन में पहली बार स्वयं विश्वेश्वर भगवान माँ के सामने-अपराधी बनकर खड़े हुए हैं। मानो अपराधी भी मैं ही हूँ, इस सत्य का प्रत्यक्ष करा दिया। बायें हाथ से दोनों आँखें रगड़-रगड़कर मानो उनसे कहलाना चाहते हों कि ये किसी कर्म के कर्ता नहीं हैं। ऊपर इसलिये देख रहे हैं कि जब माता ही पीटने के लिये तैयार है, तब मेरी सहायता और कौन कर सकता है? नेत्र भय से विह्वल हो रहे हैं, ये भले ही कह दें कि मैंने नहीं किया, हम कैसे कहें। फिर तो लीला ही बंद हो जायगी। माँ ने डांटा- "अरे, अशान्त प्रकृते! वानर बन्धों! मन्थनी स्फोटक! अब तुझे मक्खन कहाँ से मिलेगा ? आज मैं तुझे ऐसा बाँधूँगी, ऐसा बाँधूँगी कि न तो तू ग्वालबालों के साथ खेल ही सकेगा और न माखन-चोरी आदि उधम ही मचा सकेगा।"
  14. नहीं तो यह कहीं भाग जाएगा।
  15. ‘अरी मैया! मोहि मत मार।’ माता ने कहा- "यदि तुझे पिटने का इतना डर था तो मटका क्यों फोड़ा?" श्रीकृष्ण- "अरी मैया! मैं अब ऐसा कभी नहीं करुँगा। तू अपने हाथ से छड़ी डाल दे।" श्रीकृष्ण का भोलापन देखकर मैया का हृदय भर आया, वात्सल्य-स्नेह के समुद्र में ज्वार आ गया। वे सोचने लगीं- "लाला अत्यन्त डर गया है। कहीं छोड़ने पर यह भागकर वन में चला गया तो कहाँ-कहाँ भटकता फिरेगा, भूखा-प्यासा रहेगा। इसलिये थोड़ी देर तक बाँधकर रख लूँ। दूध-माखन तैयार होने पर मना लूँगी। यही सोच-विचाकर माता ने बाँधने का निश्चय किया। बाँधने में वात्सल्य ही हेतु था।
    भगवान के ऐश्वर्य का अज्ञान दो प्रकार का होता है, एक तो साधारण प्राकृत जीवों को और दूसरा भगवान के नित्य सिद्ध प्रेमी परिकर को। यशोदा मैया आदि भगवान की स्वरूपभूता चिन्मयी लीला के अप्राकृत नित्य-सिद्ध परिकर हैं। भगवान के प्रति वात्सल्य भाव, शिशु-प्रेम की प्रगाढ़ता के कारण ही उनका ऐश्वर्य-ज्ञान अभिभूत हो जाता है; अन्यथा उनमें अज्ञान की संभावना ही नहीं है। इनकी स्थिति तुरीयावस्था अथवा समाधि का भी अतिक्रमण करके सहज प्रेम में रहती है। वहाँ प्राकृत अज्ञान, मोह, रजोगुण और तमोगुण की तो बात ही क्या, प्राकृत सत्त्व की भी गति नहीं है। इसलिये इनका अज्ञान भी भगवान की लीला की सिद्धि के लिये उनकी लीला शक्ति का ही एक चमत्कार विशेष है। तभी तक हृदय में जड़ता रहती है, जब तक चेतन का स्फुरण नहीं होता। श्रीकृष्ण के हाथ में आ जाने पर यशोदा माता ने बाँस की छड़ी फेंक दी, यह सर्वथा स्वाभाविक है।
    मेरी तृप्ति का प्रयत्न छोड़कर छोटी-मोटी वस्तु पर दृष्टि डालना केवल अर्थ-हानि का ही हेतु नहीं है, मुझे भी आँखों से ओझल कर देता है। परन्तु सब कुछ छोड़कर मेरे पीछे दौड़ना मेरी प्राप्ति का हेतु है। क्या मैया के चरित से इस बात की शिक्षा नहीं मिलती? मुझे योगियों की भी बुद्धि नहीं पकड़ सकती, परन्तु जो सब ओर से मुँह मोड़कर मेरी ओर दौड़ता है, मैं उसकी मुट्ठी में आ जाता हूँ। यही सोचकर भगवान यशोदा के हाथों पकड़े गये।
  16. इस श्लोक में श्रीकृष्ण की ब्रह्म रूपता बतायी गयी है। ‘उपनिषदों में जैसे ब्रह्म का वर्णन है-अपूर्वम् अनपरम् अनन्तरम् अथाहमी इत्यादि। वही बात यहाँ श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में है। वह सर्वाधिष्ठान, सर्वसाक्षी, सर्वातीत, सर्वान्तर्यामी, सर्वोपादन एवं सर्वरूप ब्रह्म ही यशोदा माता के प्रेम के वश बँधने जा रहा है। बन्धनरूप होने के कारण उसमें किसी प्रकार असंगति या अनौचित्य भी नहीं है।
  17. यह फिर कभी ऊखल पर जाकर न बैठे, इसके लिये ऊखल से बाँधना ही उचित है; क्योंकि खल का अधिक संग होने पर उससे मन में उद्वेग हो जाता है।
    यह ऊखल भी चोर ही है, क्योंकि इसने कन्हैया के चोरी करने में सहायता की है। दोनों को बन्धन योग्य देखकर ही यशोदा माता ने दोनों को बाँधने का उद्योग किया।
  18. सद्गुणों या रस्सियों
  19. दो बित्ते की रस्सी
  20. इन्द्रियों या गायों को बाँधने वाली
  21. इन्द्रियों या गायों के स्वामी
  22. रस्सी दो अंगुल ही कम क्यों हुई? इस पर कहते हैं-
    1. भगवान ने सोचा कि जब मैं शुद्ध हृदय भक्तजनों को दर्शन देता हूँ, तब मेरे साथ एकमात्र सत्त्वगुण से ही सम्बन्ध की स्फूर्ति होती है, रज और तम से नहीं। इसलिये उन्होंने रस्सी को दो अंगुल कम करके अपना भाव प्रकट किया।
    2. उन्होंने विचार किया कि जहाँ नाम और रूप होते हैं, वहीं बन्धन भी होता है। मुझे परमात्मा में बन्धन की कल्पना कैसे? जबकि ये दोनों ही नहीं। दो अंगुल की कमी का यही रहस्य है।
    3. दो वृक्षों का उद्धार करना है। यही क्रिया सूचित करने के लिये रस्सी दो अंगुल कम पड़ गयी।
    4. भगवत्कृपा से द्वैतानुरागी भी मुक्त हो जाता है और असंग भी प्रेम से बँध जाता है। यही दोनों भाव सूचित करने के लिये रस्सी दो अंगुल कम हो गयी।
    5. यशोदा माता ने छोटी-बड़ी अनेकों रस्सियाँ अलग-अलग और एक साथ भी भगवान की कमर में लगायीं, परन्तु वे पूरी न पड़ीं; क्योंकि भगवान के छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं है। रस्सियों ने कहा- "भगवान के समान अनन्तता, अनादिता और विभुता हम लोगों में नहीं है। इसलिये इनको बाँधने की बात बंद करो।" अथवा जैसे नदियाँ समुद्र में समा जाती हैं वैसे ही सारे गुण (सारी रस्सियाँ) अनन्तगुण भगवान में लीन हो गये, अपना नाम-रूप खो बैठे। ये ही दो भाव सूचित करने के लिये रस्सियों में दो अंगुल की न्यूनता हुई।
  23. वे मन-ही-मन सोचतीं- "इसकी कमर मुट्ठी भर की है, फिर भी सैकड़ों हाथ लम्बी रस्सी से यह नहीं बँधता है। कमर तिलमात्र भी मोटी नहीं होती, रस्सी एक अंगुल भी छोटी नहीं होती, फिर भी वह बँधता नहीं। कैसा आश्चर्य है। हर बार दो अंगुल की ही कमी होती है, न तीन की, न चार की, न एक की। यह कैसा अलौकिक चमत्कार है।"
    1. भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि जब माँ के हृदय में द्वैत-भावना दूर नहीं हो रही है, तब मैं व्यर्थ अपनी असंगता क्यों प्रकट करूँ। जो मुझे बद्ध समझता है, उसके लिये बद्ध होना ही उचित है। इसलिये वे बँध गये।
    2. मैं अपने भक्त के छोटे-से गुण को भी पूर्ण कर देता हूँ, यह सोचकर भगवान ने यशोदा माता के गुण (रस्सी) को अपने बाँधने योग्य बना दिया।
    3. यद्यपि मुझमें अनन्त, अचिन्त्य कल्याण-गुण निवास करते हैं, तथापि तब तक वे अधूरे ही रहते हैं, जब तक मेरे भक्त अपने गुणों की मुहर उन पर नहीं लगा देते। यही सोचकर यशोदा मैया के गुणों (वात्सल्य, स्नेह आदि और रज्जु) से अपने को पूर्णोदर-दामोदर बना लिया।
    4. भगवान श्रीकृष्ण इतने कोमल हृदय है कि अपने भक्त के प्रेम को पुष्ट करने वाला परिश्रम भी सहन नहीं करते हैं। वे अपने भक्त को परिश्रम से मुक्त करने के लिये स्वयं ही बन्धन स्वीकार कर लेते हैं।
    5. भगवान ने अपने मध्य भाग में बन्धन स्वीकार करके यह सूचित किया कि मुझमें तत्त्वदृष्टि से बन्धन है ही नहीं; क्योंकि जो वस्तु आगे-पीछे, ऊपर-नीचे नहीं होती, केवल बीच में भासती है, वह झूठी होती है। इसी प्रकार यह बन्धन भी झूठा है।
    6. भगवान किसी की शक्ति, साधन या सामग्री से नहीं बँधते। यशोदा जी के हाथों श्यामसुन्दर को न बँधते देखकर पास-पड़ोस की ग्वालिनें इकट्ठी हो गयीं और कहने लगीं- "यशोदा जी! लाला की कमर तो मुट्टी भर ही की है और छोटी-सी किंकिणी इसमें रुन-झुन कर रही है। अब यह इतनी रस्सियों से नहीं बँधता तो जान पड़ता है कि विधाता ने इसके ललाट में बन्धन लिखा ही नहीं है। इसलिये अब तुम यह उद्योग छोड़ दो।"
    यशोदा मैया ने कहा- "चाहे सन्ध्या हो जाय और गाँव की रस्सी क्यों न इकट्ठी करनी पड़े, पर मैं तो इसे बाँधकर ही छोड़ूँगी। यशोदा जी का यह हठ देखकर भगवान ने अपना हठ छोड़ दिया; क्योंकि जहाँ भगवान और भक्त के हठ में विरोध होता है, वहाँ भक्त का ही हठ पूरा होता है। भगवान बँधते हैं तब, जब भक्त की थकान देखकर कृपापरवश हो जाते हैं। भक्त के श्रम और भगवान की कृपा की कमी ही दो अंगुल की कमी है। अथवा जब भक्त अहंकार करता है कि मैं भगवान को बाँध लूँगा, तब वह उनसे एक अंगुल दूर पड़ जाता है और भक्त की नक़ल करने वाले भगवान भी एक अंगुल दूर हो जाते हैं। जब यशोदा माता थक गयीं, उनका शरीर पसीने से लथपथ हो गया, तब भगवान की सर्वशक्तिचक्रवर्तिनी परम भास्वती भगवती कृपा-शक्ति ने भगवान के हृदय को माखन के समान द्रवित कर दिया और स्वयं प्रकट होकर उसने भगवान की सत्य-संकल्पितता और विभुता को अन्तर्हित कर दिया। इसी से भगवान बँध गये।
  24. यद्यपि भगवान स्वयं परमेश्वर हैं, तथापि प्रेमवश होकर बँध जाना परम चमत्कारकारी होने के कारण भगवान का भूषण ही है, दूषण नहीं। आत्माराम होने पर भी भूख लगना, पूर्णकाम होने पर भी अतृप्त रहना, शुद्ध सत्त्वस्वरूप होने पर भी क्रोध करना, स्वाराज्य-लक्ष्मी से युक्त होने पर भी चोरी करना, महाकाल यम आदि को भय देने वाले होने पर भी डरना और भागना, मन से भी तीव्र गति वाले होने पर भी माता के हाथों पकड़ा जाना, आनन्दमय होने पर भी दुःखी होना, रोना, सर्वव्यापक होने पर भी बँध जाना, यह सब भगवान की स्वाभाविक भक्तवश्यता है। जो लोग भगवान को नहीं जानते हैं, उनके लिये तो इसका कुछ उपयोग नहीं है, परन्तु जो श्रीकृष्ण को भगवान के रूप में पहचानते हैं, उनके लिये यह अत्यन्त चमत्कारी वस्तु है और यह देखकर-जानकर उनका हृदय द्रवित हो जाता है, भक्ति प्रेम से सराबोर हो जाता है। अहो! विश्वेश्वर प्रभु अपने भक्त के हाथों ऊखल में बँधे हुए हैं।
  25. इस श्लोक में तीनों नकारों का अन्वय ‘लेभिरे’ क्रिया के साथ करना चाहिये। न पा सके, न पा सके, न पा सके।
  26. ज्ञानी पुरुष भी भक्ति करें तो उन्हें इन सगुण भगवान की प्राप्ति हो सकती है, परन्तु बड़ी कठिनाई से। ऊखल-बँधे भगवान सगुण हैं, वे निर्गुण प्रेमी को कैसे मिलेंगे?
  27. स्वयं बँधकर भी बन्धन में पड़े हुए यक्षों की मुक्ति की चिन्ता करना, सत्पुरुष के सर्वथा योग्य है। जब यशोदा माता की दृष्टि श्रीकृष्ण से हटकर दूसरे पर पड़ती है, तब वे भी किसी दूसरे को देखने लगते हैं और ऐसा उधम मचाते हैं कि सबकी दृष्टि उनकी ओर खिंच आये। देखिये, पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदि का प्रसंग।
  28. ये अपने भक्त कुबेर के पुत्र हैं, इसलिये इनका अर्जुन नाम है। ये देवर्षि नारद के द्वारा दृष्टिपूत किये जा चुके हैं, इसलिये भगवान ने उनकी ओर देखा। जिसे पहले भक्ति की प्राप्ति हो जाती है, उस पर कृपा करने के लिये स्वयं बँधकर भी भगवान जाते हैं।

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