उनकौ ब्रज बसिबौ नहिं भावै।
ह्याँ वै भूप भए त्रिभुवन के, ह्याँ तक ग्वाल कहावै।।
ह्याँ वै छत्र सिहासन राजत, को बछरनि सँग धावै।
ह्याँ तौ विविध वस्त्र पाटबर, को कमरी सचु पावै।।
नंद जसोदा हूँ कौ बिसरयौ, हमरी कौन चलावै।
'सूरदास' प्रभु निठुर भए री, पाँतिहु लिखि न पठावै।। 3410।।