(उधौ) देखत हौ जैसे व्रजवासी।
लेत उसाँस नैनजल पूरत, सुमिरि सुमिरि अविनासी।।
भूलि न उठत जसोदा जननी, मनौ भुवंगम डासी।
छूटत नहीं प्रान क्यौ अटके, कठिन प्रेम की फाँसी।।
आवत नहीं नंदमंदिर मैं, भयौ फिरत वनवासी।
परम मलीन धेनु दुर्बल भई, स्याम विरह की त्रासी।।
गोपी ग्वाल सखा बालक सब, कहूँ न सुनियत हाँसी।
काहै दियौ ‘सूर’ सुख मै दुख, कपटी कान्ह बिसासी।।4091।।