इहिं ब्रज सरगुन दीप प्रकास्यौ -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

भ्रमर-गीत

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राग सारंग




इहिं ब्रज सरगुन दीप प्रकास्यौ।
सुनि ऊधौ त्रिकुटी त्रिवेद पर, निसि दिन प्रगट अभास्यौ।।
सबके उर सर वास नेह भरि, सुमन तिली कौ वास्यौ।
गुन अनेक ते गुनि कपूर सम, परिमल बारह मास्यौ।।
बिरह अगिनि अंगनि सब कै, नहि बुझति परे चौमास्यौ।।
साधन भोग निरजन तेरे, अंधकार तम नास्यौ।
वा दिन भयौ तिहारौ आवन, बोलत हौ उपहास्यौ।।
रहि न सके तुम सीक रूप ह्वै, निरगुन काज उकास्यौ।
बाढ़ी जाति सुकेस देस ला, टूट्यौ ज्ञान मवास्यौ।।
दुवासनी सुलभ सब जारै जे, छै रह्यौ अकास्यौ।
तुम तौ बिटप निकट के बासी, सुनियत हुते खबास्यौ।।
गोकुल कछु रस रीति न जानते, देखत नही तमास्यौ।
‘सूर’ करभ की खीर परोस्यौ, फिरिफिरि चरते जबास्यौ।। 163 ।।

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