इहिं दुख तन तरफत मरि जैहै।
कबहुँ न सखी स्यामसुंदर घन, मिलिहै आइ अक भरि लैहै?
कबहुँ न बहुरि सखा सँग ललना, ललित त्रिभगी छविहिं दिखैंहैं?
कबहुँ न बेनु अधर धरि मोहन, यह मति लै लै नाम बुलैहैं?
कबहुँ न कुंज भवन सँग जैहै, कबहुँ न दूती लैन पठैंहै?
कबहुँ न पकरि भुजा रस बस ह्वै, कबहुँ न पग परि मान मिटैंहैं?
याही तै घट प्रान रहत है, कबहुँक फिरि दरसन हरि दैहै?
'सूरदास' परिहरत न यातै, प्रान तजै नहि पिय ब्रज ऐहै।। 3407।।