इन नैननि सौ मानी हारि।
अनुदिनही उपरात आन रुचि, बाढी सब लोगनि सौ रारि।।
तदपि निडर चलि जात चपल दोउ, घूँघट सघन कपाट उघारि।
निगम-ज्ञान-प्रतिहार-महाबल, लाजलकुट कर करन निवारि।।
श्री गोपाल कौतुक मन अरप्यौ, तब तै चतुरनि भई चिह्नारि।
'सूरदास' लोभिनि के लीने, सिर पर सही जगत की गारि।।2388।।