आना न रुचे तो मुझको ही बुलवाओ।
दे अनुमति, मुझपर प्रिये! दया दिखलाओ॥
तुम अब भी यदि मुझपर न दया लाओगी।
तो मुझे प्राण-संकट में तुम पाओगी’॥
दूतीने आ जब यह संदेश सुनाया।
राई रो पड़ी, पड़ी हो मूर्च्छित काया॥
दौड़ी सखियाँ, कर यत्न चेत करवाया।
बोली-’मैं कितनी हूँ निर्दयी, अमाया॥
मैं प्राणनाथ को हूँ कितना दुख देती ?
उनसे केवल मैं निज सुखको ही लेती’॥
हो आतुर अति, दूतीको ले सँग आयी।
देखी प्रियतम की बुरी दशा अकुलायी॥
निज पटसे पोंछे नेत्र मधुर-मृदु हँसकर।
फिर प्राणनाथ से मिली बाहु में कसकर॥
सब मिटी व्यथा मुखपर मुसकाहट छायी।
कर अधर-सुधा-रस-पान गले लपटायी॥
सब हुए प्रफुल्लित अङ्ग, बही रस-धारा।
सुख अन्तहीन ने सारे दुख को मारा॥