आदि सनातन हरि अविनासी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग गौड़ मलार


आदि सनातन, हरि, अविनासी। सदा निरंतर घट-घट-वासी।
पूरन ब्रह्म, पुरान बखानैं। चतुरानन, सिव, अंत न जानैं।
गुन-गन अगम, निगम नहिं पावै। ताहि जसोदा गोद खिलावै।
एक निरंतर ध्यावै ज्ञानी। पुरुष पुरातन सो निर्वानी।
जप-तप-संजम-ध्यान न आवै। सोइ नंद कैं आँगन धावै।
लोचन-स्नवन न रसना-नासा। विनु पद-पानि करै परगासा।
बिस्वंंभर निज नाम कहावै। घर-घर गोरस सोइ चुरावै।
सुक-सारद से करत विचारा। नारद से पावहिं नहिं पारा।
अवरन, बरन सुरति नहिं धारै। गोपिनि के सो बदन निहारै।
जरा-मरन तैं रहित, अमाया। मातु पिता सुत, वंधु न जाया।
ज्ञान-रूप हिरदै मैं बोलै। सो बछरनि के पाछै डोलै।
जल, धर, अनिल, अनल, नभ छाया। पंचतत्त्व तैं जग उपजाया।
माया प्रगटि सकल जग मोहै। कारन करन करै सो सौहै।
सिव-समाधि जिहि अंत न पावै। सोइ गोप की गाइ चरावै।
अच्युत रहै सदा जल-साई। परमानंद परम सुखदाई।
लोक रचै राखै अरु मारै। सो ग्वालनि सँग लीला धारै।
काल डरै जाकैं डर भारी। सो ऊखल बाँध्यौ महतारी।
गुन अतीत, अविगत, न जनावै। जस अपार, स्त्रुति पार न पावै।
जाकी महिमा कहत न आवै। सो गोपिनि सँग रास रमावै।
जाकी माया लखै न कोई। निर्गुन-सगुन घरै बपु सोई।
चौहद भुवन पलक मैं टारै। सो बन बीथिनि कुटी सँवारै।
चरन-कमल नित रमा पलोवै। चाहति नैंकु नैन भरि जोवै।
अगम, अगोचर, लीला-धारी। सो राधा-बस कुंज-विहारी।
बड़भागी वै सब ब्रजवासी। जिनकैं सँग खेलैं अबिनासी।
जा रस ब्रह्मादिक नहिं पावैं। सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं।
सूर सुजस कहि कहा बखानै। गोबिंद की गति गोबिंद जानै॥3॥

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः