आजु हठि बैठी मान किये।
महा क्रोध रस अंसु तपत मिलि, मनु विष विषम पिये।।
अधमुख रहति बिरह व्याकुल, सिख मूरि मंत्र नहिं मानै।
मूक न तजै सुमिरि जाती ज्यौं, सुधि आऐ तनु जानै।।
एक लीक बसुधा पर काढी, नभ तन गोद पसारी।
जनु बोहित तजि तकै परन कौ दधि ज्यौ अवनि निहारी।।
ज्यौ अति दीन दुखी सबही अँग, कतहूँ सांति न पावै।
त्यौ बिनु पियहिं तिया प्रातहिं तै, एकै बात मनावै।।
कबहुँक धुकति धरनि स्रमजल भरि महा सरद रवि सास।
त्राटत भई चित्र पूतरि ज्यौ, जीवन की नहिं आस।।
तब उपचार कियौ मैं करकस, लै रस पारयौ कान।
मुर्छा जगी, नहीं मुख बोली, लै बैठी फिर मान।।
हौ तौ थकी करति बहु जतननि, जी की विथा न पाई।
बूझहु लाल नवल नागर तुम, एकै सैन बताई।।
सिव आकार दिखायौ कछु इक, भाव दोष रस नाही।
'सूरदास' प्रभु रसिक सिरोमनि, लै मेली पग छाही।।2600।।