आजु रैनि नहिं नींद परी।
जागत गिनत गगन के तारे, रसना रटत गोबिंद हरी।।
वह चितवनि, वह रथ की बैठनि, जब अकूर की बाँहँ गही।
चितवति रही ठगी सी ठाढी, कहि न सकति कछु काम दही।।
इते मान व्याकुल भइ सजनी, आरजपंथहुँ तै बिडरी।
'सूरदास' प्रभु जहाँ सिधारे, कितिक दूर मथुरा नगरी।।3004।।