आजु बन कोऊ वै जनि जाइ।
सब गाइनि-बछरनि समेत, लै आनहु चित्र बनाइ।
ढोटा है रे भयौ महर कैं, कहत सुनाइ-सुनाइ।
सबहि घोष मैं भयौ कुलाहल, आनँद उर न समाइ।
कत हौ गहर करत बिन काजैं, वेगि चलौ उठि धाइ।
अपने-अपने मन कौ चीत्यौ, नैननि देख्यौ आइ।
एक फिर दधि दूब धरत सिर, एक रहत गहि पाइ।
एक परस्पर देत बधाई, एक उठत हँसि गाइ।
बालक-वृद्ध-तरुन-नर-नारिनि, बढ़यौ चौगुनौ चाइ।
सूरदास सब प्रेम-मगन भए, गनत न राजा-राइ॥20॥