आजु वने बन तै ब्रज आवत।
जद्यपि है अपराध भरे हरि, देखि तऊ मोहि भावत।।
नख रेखा मुक्तावलि कै तट, अंग अनूप लसी है।
मनौ सुरसरी ईस सीस तै लै बिंधु कला धँसी है।।
केलि करत काहू जुवती, कर कुमकुम भरि उर दीन्हौ।
मनौ सुरसती पंच धार ह्वै, नभ तै आगम कीन्हौ।।
बीच बीच कमनीय अंग पर, स्यामल रेख रही है।
सुरसुता मनु कनक भूमि पर, चारि प्रबाह बही है।।
निरखत अंग 'सूर' के प्रभु कौ, प्रगटित भई त्रिबेनी।
मम-बच-कर्म-दुरित-नासन कौ, मानहु स्वर्ग निसेनी।।2647।।