आचार्य श्रीमधुसूदन सरस्वती जी का श्रीकृष्ण प्रेम 2

आचार्य श्रीमधुसूदन सरस्वती जी का श्रीकृष्ण प्रेम


श्रीमधुसूदनाचार्य जी ने गीता की मधुसूदनी टीका के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में उपर्युक्त श्लोकों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण का जो स्वरूप चित्रित किया है, उससे उनका श्रीकृष्ण प्रेम स्पष्ट झलकता है। ईसा की लगभग सोलहवीं शताब्दी में बंगाल के फरीदपुर जिले के कोटालपाड़ा ग्राम में प्रमोदन पुरन्दर नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। उनके तृतीय पुत्र हुए कमलनयन जी। इन्होंने न्याय के अगाध विद्वान गदाधर भट्ट के साथ नवद्वीप के हरिराम तर्कवागीश से न्यायशास्त्र का अध्ययन किया। काशी आकर दण्डिस्वामी श्रीविश्वेश्वराश्रम जी से इन्होंने वेदान्त का अध्ययन किया और यहीं संन्यास ग्रहण किया। संन्यास का इनका नाम ‘मधुसूदन सरस्वती’ पड़ा।

स्वामी मधुसूदन सरस्वती को शास्त्रार्थ करने की धुन थी। काशी के बड़े-बड़े विद्वानों को ये अपनी प्रतिभा के बल से हरा देते थे। परंतु जिसे श्रीकृष्ण अपनाना चाहते हों, उसे माया का यह थोथा प्रलोभन-जाल कब तक उलझाये रख सकता है। एक दिन एक वृद्ध दिगम्बर परमहंस ने उनसे कहा-‘स्वामी जी! सिद्धान्त की बात करते समय तो आप अपने को असंग, निर्लिप्त ब्रह्म कहते हैं; पर सच बताइये, क्या विद्वानों को जीतकर आपके मन में गर्व नहीं होता? यदि आप पराजित हो जायँ, तब भी क्या ऐसे ही प्रसन्न रह सकेंगे? यदि आपको घमंड होता है तो ब्राह्मणों को दुःखी करने, अपमानित करने का पाप भी होगा।’ कोई दूसरा होता तो मधुसूदन सरस्वती उसे फटकार देते, परंतु उन संत के वचनों से वे लज्जित हो गये। उनका मुख मलिन हो गया। परमहंस ने कहा-‘भैया! पुस्तकों के इस थोथे पाण्डित्य में कुछ रखा नहीं है। ग्रन्थों की विद्या और बुद्धि के बल से किसी ने इस माया के दुस्तर जाल को पार नहीं किया। प्रतिष्ठा तो देह की होती है और देह नश्वर है। यश तथा मान-बड़ाई की इच्छा भी एक प्रकार का शरीर का मोह ही है। तुम श्रीकृष्ण की शरण लो। उपासना करके हृदय से इस गर्व के मैल को दूर कर दो। सच्चा आनन्द तो तुम्हें आनन्दकन्द श्रीवृन्दावनचन्द्र के चरणों में ही मिलेगा।’

स्वामी जी ने उन महात्मा के चरण पकड़ लिये। दयालु संत ने श्रीकृष्ण-मन्त्र देकर उपासना तथा ध्यान की विधि बतायी और चले गये। मधुसूदन सरस्वती ने तीन महीने तक उपासना की। जब उनको इस अवधि में कुछ लाभ न जान पड़ा, तब काशी छोड़कर ये घूमने निकल पड़े। कपिलधारा के पास वही संत इन्हें फिर मिले। उन्होंने कहा- ‘स्वामी जी! लोग तो भगवत्प्राप्ति के लिये अनेक जन्मों तक साधन, भजन और तप करते हैं, फिर भी बड़ी कठिनता से उन्हें भगवान के दर्शन हो पाते हैं, पर आप तो तीन ही महीने में घबरा गये।’ अब अपनी भूल का स्वामी जी को पता लगा। ये गुरुदेव के चरणों पर गिर पड़े। काशी लौटकर ये फिर भजन में लग गये। प्रसन्न होकर श्रीश्यामसुन्दर ने इन्हें दर्शन दिये।


पृष्ठ पर जाएँ

1 | 2 | 3

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः