आए सुरति-रंग-रस-माते।
मानहुँ छिन बिस्राम निमित पिय, स्रमित भए हैं तातैं।।
डगमगात मग धरत परत पग, उठत न बेगि तहाँ तैं।
मनु गज भत्त चरन साँकर करि, गहि आनत तिहिं ठाँ तै।।
उर नखछत ककनछत पाछै, सोभित है रूहिरातै।
मदन सुभट के बान लागि मनु, निकसि गए उहि धाँ तै।।
साँचे करत आपने बोलनि, टरत न मरजादा तैं।
'सूर' स्याम कहि गए आइहै, पग धारे तिहि नातैं।।2686।।