- महाभारत मौसल पर्व के अंतर्गत आठवें अध्याय में वैशम्पायन जी ने अर्जुन और व्यास के बातचीत करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
अर्जुन और व्यास जी की बातचीत
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! सत्यवादी व्यास जी के आश्रम में प्रवेश करके अर्जुन ने देखा कि सत्यवतीनन्दन मुनिवर व्यास एकान्त में बैठे हुए हैं। महान व्रतधारी तथा धर्म के ज्ञाता व्यास जी के पास पहुँचकर 'मैं अर्जुन हूँ' ऐसा कहते हुए धनंजय ने उनके चरणों में प्रणाम किया। फिर वे उनके पास ही खड़े हो गये। उस समय प्रसन्नचित्त हुए महामुनि सत्यवतीनन्दन व्यास ने अर्जुन से कहा- ‘बेटा! तुम्हारा स्वागत है; आओ यहाँ बैठों'। अर्जुन का मन अशान्त था। वे बारंबार लंबी साँस खींच रहे थे। उनका चित्त खिन्न एवं विरम्त हो चुका था। उन्हें इस अवस्था में देखकर व्यास जी ने पूछा- ‘पार्थ! क्या तुमने नख, बाल अथवा अधोवस्त्र (धोती) की कोर पड़ जाने से अशुद्ध हुए घड़े के जल से स्नान कर लिया है? अथवा तुमने रजस्वला स्त्री से समागम या किसी ब्राह्मण का वध तो नहीं किया है? कहीं तुम युद्ध में परास्त तो नहीं हो गये? क्योंकि श्रीहीन-से दिखायी देते हो। भरतश्रेष्ठ! तुम कभी पराजित हुए हो- यह मैं नहीं जानता; फिर तुम्हारी ऐसी दशा क्यों है? पार्थ! यदि मेरे सुनने योग्य हो तो अपनी इस मलिनता का कारण मुझे शीघ्र बताओ'।
अर्जुन ने कहा- 'भगवन! जिनका सुन्दर विग्रह मेघ के समान श्याम था और जिनके नेत्र विशाल कमलदल के समान शोभा पाते थे वे श्रीमान भगवान कृष्ण बलराम जी के साथ देहत्याग करके अपने परमधाम को पधार गये। देवताओं के भी देवता, अमृतस्वरूप श्रीकृष्ण के मधुर वचनों को सुनने, उनके श्रीअंगों का स्पर्श करने और उन्हें देखने का जो अमृत के समान सुख था, उसे बार-बार याद करके मैं अपनी सुध-बुध खो बैठता हूँ। ब्राह्मणों के शाप से मौसलयुद्ध में वृष्णिवंशी वीरों का विनाश हो गया। बड़े-बड़े वीरों का अन्त कर देने वाला वह रोमाञ्चकारी संग्राम प्रभासक्षेत्र में घटित हुआ था। ब्रह्मन! भोज, वृष्णि और अन्धक वंश के ये महामनस्वी शूरवीर सिंह के समान दर्पशाली और महान बलवान थे; परन्तु वे गृहयुद्ध में एक-दूसरे के द्वारा मार डाले गये। जो गदा, परिघ और शक्तियों की मार सह सकते थे। वे परिघ के समान सुदृढ बाहों वाले यदुवंशी एरका नामक तृणविशेष के द्वारा मारे गये- यह समय का उलट-फेर तो देखिये।
अपने बाहुबल से शोभा पाने वाले पाँच लाख वीर आपस में ही लड़-भिड़कर मर मिटे। उन अमित तेजस्वी वीरों के विनाश का दु:ख मुझसे किसी तरह सहा नहीं जाता। मैं बार-बार उस दुख से व्यथित हो जाता हूँ। यशस्वी श्रीकृष्ण और यदुवंशियों के परलोक-गमन की बात सोचकर तो मुझे ऐसा जान पड़ता है, मानो समुद्र सूख गया, पर्वत हिलने लगे, आकाश फट पड़ा और अग्नि के स्वभाव में शीतलता आ गयी। शांर्ग धनुष धारण करने वाले श्रीकृष्ण भी मृत्यु के अधीन हुए होंगे- यह बात विश्वास के योग्य नहीं है। मैं इसे नहीं मानता। फिर भी श्रीकृष्ण मुझे छोड़कर चले गये। मैं इस संसार में उनके बिना नहीं रहना चाहता। तपोधन! इसके सिवा जो दूसरी घटना घटित हुई है वह इससे भी अधिक कष्टदायक है। आप इसे सुनिये।[1] जब मैं उस घटना का चिन्तन करता हूँ तब बारंबार मेरा हृदय विदीर्ण होने लगता है। ब्रह्मन! पंजाब के अहीरों ने मुझसे युद्ध ठानकर मेरे देखते-देखते वृष्णि वंश की हज़ारों स्त्रियों का अपहरण कर लिया मैंने धनुष लेकर उनका सामना करना चाहा परंतु मैं उसे चढ़ा न सका। मेरी भुजाओं में पहले-जैसा बल था वैसा अब नहीं रहा। महामुने! मेरा नाना प्रकार के अस्त्रों का ज्ञान विलुप्त हो गया।
मेरे सभी बाण सब ओर जाकर क्षणभर में नष्ट हो गये। जिनका स्वरूप अप्रमेय है, पीताम्बरधारी, श्यामसुन्दर तथा कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, जो महातेजस्वी प्रभु शत्रुओं की सेनाओं को भस्म करते हुए मेरे रथ के आगे-आगे चलते थे, उन्हीं भगवान अच्युत को अब मैं नहीं देख पाता हूँ। साधुशिरोमणे! जो पहले स्वयं ही अपने तेज से शत्रुसेनाओं को दग्ध कर देते थे, उसके बाद मैं गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा उन शत्रुओं का नाश करता था, उन्हीं भगवान को आज न देखने के कारण मैं विषाद में डूबा हुआ हूँ। मुझे चक्कर-सा आ रहा है। मेरे चित्त में निर्वेद छा गया है। मुझे शान्ति नहीं मिलती है। मैं देवस्वरूप, अजन्मा, भवान देवकीनन्दन वासुदेव वीर जनार्दन के बिना अब जीवित रहना नहीं चाहता। सर्वव्यापी भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये, यह बात सुनते ही मुझे सम्पूर्ण दिशाओं का ज्ञान भूल जाता है। मेरे भी जाति-भाइयों का नाश तो पहले ही हो गया था, अब मेरा पराक्रम भी नष्ट हो गया; अत: शून्यहृदय होकर इधर-उधर दौड़ लगा रहा हूँ। संतों में श्रेष्ठ महर्षे! आप कृपा करके मुझे यह उपदेश दें कि मेरा कल्याण कैसे होगा'?
व्यास जी बोले- 'कुन्तीकुमार! वे समस्त यदुवंशी देवताओं के अंश थे। वे देवाधिदेव श्रीकृष्ण के साथ ही यहाँ आये थे और साथ ही चले गये। उनके रहने से धर्म की मर्यादा के भंग होने का डर था; अत: भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म-व्यवस्था की रक्षा के लिये उन मरते हुए यादवों की उपेक्षा कर दी। कुरुश्रेष्ठ! वृष्णि और अन्धक वंश के महारथी ब्राह्मणों के शाप से दग्ध होकर नष्ट हुए हैं; अत: तुम उनके लिये शोक न करों। उन महामनस्वी वीरों की भवितव्यता ही ऐसी थी। उनका प्रारब्ध ही वैसा बन गया था। यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण उनके संकट को टाल सकते थे तथापि उन्होंने इसकी उपेक्षा कर दी। श्रीकृष्ण तो सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकों की गति को पलट सकते हैं, फिर उन महामनस्वी वीरों को प्राप्त हुए शाप को पलट देना उनके लिये कौन बड़ी बात थी।[2]
(तुम्हारे देखते-देखते स्त्रियों का जो अपहरण हुआ है, उसमें भी देवताओं का एक रहस्य है।) वे स्त्रियाँ पूर्वजन्म में अप्सराएँ थीं। उन्होंने अष्टावक्र मुनि के रूप का उपहास किया था। मुनि ने शाप दिया था (कि ‘तुम लोग मानवी हो जाओ और दस्युओं के हाथ में पड़ने पर तुम्हारा इस शाप से उद्धार होगा।) इसीलिये तुम्हारे बल का क्षय हुआ (जिससे वे डाकुओं के हाथ में पड़कर उस शाप से छुटकारा पा जायँ), (अब वे अपना पूर्वरूप और स्थान पा चुकी हैं, अत: उनके लिये भी शोक करने की आवश्यकता नहीं है।) जो स्नेहवश तुम्हारे रथ के आगे चलते थे (सारथि का काम करते थे), वे वासुदेव कोई साधारण पुरुष नहीं, साक्षात चक्र-गदाधारी पुरातन ऋषि चतुर्भुज नारायण थे। वे विशाल नेत्रों वाले श्रीकृष्ण इस पृथ्वी का भार उतारकर शरीर त्याग अपने उत्तम धाम को जा पहुँचे हैं। पुरुषप्रवर! महाबाहो! तुमने भी भीमसेन और नकुल-सहदेव की सहायता से देवताओं का महान कार्य सिद्ध किया है। कुरुश्रेष्ठ! मैं समझता हूँ कि अब तुम लोगों ने अपना कर्तव्य पूर्ण कर लिया है। तुम्हें सब प्रकार से सफलता प्राप्त हो चुकी है। प्रभो! अब तुम्हारे परलोकगमन का समय आया है और यही तुम लोगों के लिये श्रेयस्कर है।
भरतनन्दन! जब उद्भव का समय आता है तब इसी प्रकार मनुष्य की बुद्धि, तेज और ज्ञान का विकास होता है और जब विपरीत समय उपस्थित होता है तब इन सबका नाश हो जाता है। धनंजय! काल ही इन सबकी जड़ है। संसार की उत्पत्ति का बीज भी काल ही है और काल ही फिर अकस्मात सबका संहार कर देता है। वही बलवान होकर फिर दुर्बल हो जाता है और वही एक समय दूसरों का शासक होकर कालान्तर में स्वयं दूसरों का आज्ञापालक हो जाता है। तुम्हारे अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोजन भी पूरा हो गया है; इसलिये वे जैसे मिले थे वैसे ही चले गये। जब उपयुक्त समय होगा तब वे फिर तुम्हारे हाथ में आयेंगे। भारत! अब तुम लोगों के उत्तम गति प्राप्त करने का समय उपस्थित है। भरतश्रेष्ठ! मुझे इसी में तुम लोगों का परमकल्याण जान पड़ता है'। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अमित तेजस्वी व्यास जी के इस वचन का तत्त्व समझकर अर्जुन उनकी आज्ञा ले हस्तिनापुर को चले गये। नगर में प्रवेश करके वीर अर्जुन युधिष्ठिर से मिले और वृष्णि तथा अन्धकवंश का यथावत समाचार उन्होंने कह सुनाया।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत मौसल पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-15
- ↑ महाभारत मौसल पर्व अध्याय 8 श्लोक 16-27
- ↑ महाभारत मौसल पर्व अध्याय 8 श्लोक 28-38
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