अरी अरी सुंदरि नारि सुहागिनि, लागैं तेरैं पाउँ।
किहि धाँ के तुम बीर बढाऊ कौन तुम्हारौ गाउँ।
उत्तर दिसि हम-नगर अयोध्या, है सरजू कैं तीर।
बड़ कुल, बड़े भूप दसरथ सखि, बड़ौ नगर गंभीर।
कौनैं गुन वन चली वधू तुम, कहि मोसौं सति भाउ।
वह घर-द्वार छाँडि कैं सुंदरि, चली पियादे पाँउ।
सासु की सौति सुहागिनि सो सखी, अतिहीं पिय की प्यारी।
अपने सुत कौं राज दिवायौ, हमकौं देस निकारी।
यह विपरीत सुनी जब सबहीं नैननि ढारयौं नीर।
आजु सखी चली भवन हमारै, सहित दोउ रघुबीर।
बरष चतुरदस भवन न बसिहैं, आज्ञा दीन्ही राइ।
उनके बचन सत्या करि सजनी, बहुरि मिलैंगे आइ।
विनती बिहँसि सरस मुख सुंदरि, सिय सौं पूछी गाथ।
कौन बरन तुम देवर सखि रो, कौन तिहारौ नाथ?
कटि तट पट पीतांबर काछे, धारे धनु तूनीर।
गौर बरन मेरे देवर सखि, पिय मम स्याुम सरीर।
तीनि जने सोभा त्रिलोक की, छाँड़ि सकल पुरधाम।
सूरदास-प्रभु-रूप चकित भए, पंथ चलत नर-धाम॥44॥