अब हरि निपटहि निठुर भए।
फिरि नहि सुरति करी गोकुल की, जिहि दिन तै मधुपुरी गए।।
कबहुँ न सुन्यौ सदेस स्रवन हम, करत फिरत नित नेह नए।
ऐसी बधू चतुर वा पुर की, छल बल करि मोहन रिझए।।
हम जानति है स्याम हमारे, कहा भयौ जौ अनंत रए।
'सूरदास' हरि कछु न लागै, छंद बद कुबिजा सिखए।। 3369।।