अब हम निपटहिं भई अनाथ।
जैसै मधु तोरे की माखी, त्यौ हम बिनु व्रजनाथ।।
अधरअमृत की पीर मुई हम, बाल दसा तै जोरि।
सो छाँडाइ सुफलकसुत लै गयौ, अनायास ही तोरि।।
जौ लगि पानि पलक मीडत रही, तौ लगि चलि गए दूरि।
करि निरध निबहे दै माई, आँखिनि रथ-पद-धूरि।।
निसि दिन करी कृपन की संपति, कियौ न कबहूँ भोग।
‘सूर’ विधाता रचि राख्यौ वह, कुबिजा के मुख जोग।। 3160।।