अब सिर परी ठगौरी देव।
तातै विबस भयौं करुनामय, छाँड़ि तिहारी सेव।
माया-मंत्र पढ़त मन निसि-दिन मोह-मूरछा आनत।
ज्यौं मृग नाभि-कमल निज अनुदिन निकट रहत नहिं जानत।
भ्रम-मद-मत्त, काम-तृप्ना-रस-वेग, न क्रमै गह्यौ।
सूर एक पल गहरु न कीन्ह्यौ, किहिं जुग इतौ सह्यौ।।49।।