अब समुझी यह निठुर बिधाता।
ऐसेहि जगत-पिता कहवावत, ऐसे घात कर सो धाता।।
कैसौ ज्ञान, चतुरई कैसौ, कौन विवेक, कहाँ कौ ज्ञाता।
जैसौ दुःख हमकौ इहि दीन्हौ, तैसौ याकौ होइ निपाता।।
द्वै लोचन तनु मैं करि दीन्हे, याही तै जान्यौ पितुमाता।
‘सूर’ स्यामछवि तै अघात नहिं, बार बार आवति अकुलाता।।1849।।