अब मैं जानी, देह बुढानी।
सीस पाउँ, कर कह्यौ न मानत, तन कौ दसा सिरानी।
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन नाक बहै पानी।
मिटि गइ चमक-दमक अँग-अँग की, मति अरु दृष्टि हिरानी।
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जु बात बिरानी।
सूरदास अब होत बिगूचनि, भजि लै सारँमपानी।।305।।