अब मुरली कछु नीकैं बाजति।
ज्यौं अधरनि, ज्यौं कर पर बैठति, त्यौं अतिहीं अति राजति।।
अब लौं जानी बाँस बँसुरिया, यातैं और न बंस।
कैसैं बजि रजि चली सबनि कौं, राधा करति प्रसंस।।
यह कुलीन, अकुलीन नहीं री, धनि याके पितु-मात।
सुनहु सूर नाते की भैनी, कहतिं बात हरषात।।1360।।