अब तुम नाम गहो मन नागर।
जातैं काल-अगिनि तै बाँची, सदा रहौ सुखसागर।
मारि न सकै, बिधन नहिं ग्रासै, जम न चढ़ावै कागर।
किया-कर्म करतहु निसि-बासर भक्ति कौ पंथ उजागर।
सोचि विचारि कसल स्त्रुति-संमति, हरि तै और न आगर।
सूरदास प्रभु इहिं औसर भजि उतरि चलौ भवसागर।।91।।