अब तुम कापर कपट बनावत।
नाहिंन कस कान्ह नहि गोकुल, को पठवत कहँ आवत।।
जिन मोहन बसी बारिज कर, सुख तन सीचि बढ़ायौ।
सो पुनि ऊधौ कर कारन क्यौ, जोग कुठार पठायौ।।
यह इतनौ मानुष हूँ जानै, जिनकै है मति थोरी।
धोखै ही बिरवा लगाइ कै, काटत नाहिं बहोरी।।
वै प्रवीन अति नागर ऊधौ, जानि परस्पर प्रेम।
कैसे कै पठवत वै आवत, टारन कौ हित नेम।।
स्वर्गहुँ गए कस अपराधी, परयौ हमारै खोज।
दृष्टि टारि, ध्यानहुँ तै टारत, बाउ सबनि कौ चोज।।
विद्यमान आए जे छल करि, तिन अपनौ फल पायौ।
ह्याँ है हृदै ‘सूर’ के स्वामी, बनत न स्वाँग बनायौ।।3974।।