अब कछु औरहि चाल चली।
मदन गुपाल बिना या ब्रज की, सबै बात बदली।।
गृह कदरा समान सेज भइ, सिंहहु चाहि बली।
सीतल चंद सुतौ सखि कहियत, तातै अधिक जली।।
मृगमद मलय कपूर कुंकुमा, सींचति आदि अली।
एक न फुरत बिरह जुर तै कछु, लागत नाहिं भली।।
अंमृत बेलि ‘सूर’ के प्रभु बिनु अब विष फलनि फली।
हरिबिधु बिमुख नाहिन बिगसति, मनसा कुमुद कली।। 3197।।