अब अति चकितवंत मन मेरौ।
आयौ हो निरगुन उपदेसन, भयौ सगुन कौ चेरौ।।
जो मैं ज्ञान कह्यौ गीता कौ, तुमहिं न परस्यौ नेरी।
अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हरि केरी।।
निज जन जानि मानि जतननि तुम, कीन्ही नेह घनेरी।
‘सूर’ मधुप उठि चले मधुपुरी, बोरि जोग को वेरी।।4079।।