अपने अघ-सागर अगाधको सदा छिपाता मैं रहता।
रज-सम पर-अघ-अंकुर को पर्वतकर मैं सबसे कहता॥
पर-सुख देख जला करता मैं, पर-पीड़ा में सुख लहता।
पर-निन्दा प्यारी अति लगती, पर-यश दुःखसहित सहता॥
निन्दनीय मेरा जीवन यह, होगा क्यों न नरक-गामी?॥4॥-दीन०
विविध वेष धर विविध भाँति से लोगों को नित मैं ठगता।
भक्ति-प्रेम, वैराग्य-जान के साधन कह-कह मुँह लगता॥
ऊपरसे निःस्पृह-सा रहता, स्वार्थ-सिद्धि में नित जगता।
काम-भोग के साधन में संलग्र, नहीं पलभर भगता॥
ऐसा मैं अति नीच, असुर-मति, दुष्कृति, सहज नरक-धामी॥5॥-दीन०
हुआ अमिट दृढ़ निश्चय अब तो, मुझे कहीं भी ठौर नहीं।
मुझको रखें ऐसे शरणद आप सरीखे और नहीं॥
घृणित, नराधम, नरक-कीट, मेरे पापों का छोर नहीं।
कर विश्वास आ पड़ा प्रभुके चरणों में, कुछ जोर नहीं॥
होकर आज अनन्य अघी मैं, हूँ प्रभु-पदका अनुगामी॥6॥-दीन०