अपनी सी करत कठिन मन निसि दिन।
कहि कहि क्या मधुप समुझावत, तदपि न रहत नंदनदन बिनु।।
स्रवन संदेस नयन बरसत जल, मुख बतियाँ कछु और चलावत।
भाँति अनेक धरत मन निठुरइ, सब तजि सुरति वहै जिय आवत।।
कोटि स्वर्ग सम सुख अनुमानत, हरि समीप समता नहिं पावत।
थकित सिंधु नौका के खग ज्यौ, फिरि फिरि फेरि वहै गुन गावत।।
जेइ जेइ बात बिचारतिं अंतर, तेइ तेइ अधिक अनल उर दाहत।
'सूरदास' परिहरि न सकत तन, बारक बहरि मिल्यौई चाहत।।3722।।