अपनी भक्ति देहु भगवान -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग केदारौ





अपनी भक्ति देहु भगवान।
कोटि लालच जौ दिखावहु, नाहिनैँ रुचि आन।
जा दिना तैँ जनम पायौ, यहै मेरी रीति।
विषय-विष हठि खात, नाही डरत करत अनीति।
जरत ज्‍वाला, गिरत गिरि तैं, स्‍वकर काटत सीस।
देखि सा‍हस सकुच मानत, राखि सकत न ईस।
कामना करि कोटि कबहुँ, किए बहु पसु-घात।
सिंह –सावक ज्‍यौं तजैं गृह, इंद्र आदि डरात।
नरक कूपनि जाइ जमपुर परयौ बार अनेक।
थके किंकर-जूथ जम के, टरत टारैं न नेक।
महा लालच, मारिबे की सकुच नाहिं न मोहिं।
किए प्रन हौं परयौ द्वारैं, लाज प्रन की तोहिं।
नाहिं काँचौ कृपा-निधि हौं, करौ कहा रिसाइ।
सूर तबहुँ न द्वार छाँड़ै, डारिहौ कढ़िराइ।।106।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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