अन्तरङ्ग सखियोंने प्रातः देखा, पड़े अचेत-उदास।
किसी तरह ले गयीं उठा वे उनको सत्वर कुज-विलास॥
छिडक़ गुलाब कराया चेतन, मनमें भरे विषाद अपार।
'हा राधे! हा प्राणवल्लभे! प्रिये!’ तभी से रहे पुकार॥
श्याम-सखी से सुनते ही दुःख-प्रद समाचार यह घोर।
अधोमुखी हो सुधा-मुखी श्रीराधा हुई विषाद-विभोर॥
राधा-हृदय-विषाद क्षणोंमें निकला, फैला चारों ओर।
मुरझाये तरु-लता, हो गये अति विषण्ण शुक-पिक-अलि-मोर॥
मलिन हुई सब वन्य-प्रकृति अति छाया सभी ओर अनुताप।
तुरत जल उठा बड़वानल-सा सर-सरिता-जल अपने-आप॥
हो व्याकुल अर्धोन्मत्त-सी उठी, न तनकी तनिक सँभाल।
नेत्रों से बह चली उष्ण धारा, था मन चचल बेहाल॥
दिव्य सुकोमल काँप उठा सुकुमार मधुर वह स्वर्ण-शरीर।
करने लगी करुण क्रन्दन वह सिसक-सिसककर बनी अधीर॥
’हूँ मैं कैसी नीच पापिनी, हुई ध्यान-सुख में जो लीन।
भूली प्रियतम-सुख, मैं बनकर स्व-सुख-वासना-जलकी मीन॥
दुःख-हेतु मैं हूँ प्रियतमकी नीच स्वार्थ में सनी असार।
ऐसे पतित घृणित जीवनको बार-बार अतिशय धिक्कार॥