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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग गौड़ मलारगोपी- (के चित्त— ) में पूर्ण प्रेम प्रकट हो गया है; (वह) सिर पर दही का बर्तन रखे हुए कहती है (कोई) ‘गोपाल लो!’ राजमार्ग पर, (यमुनाजी के) घाटों पर और अपने (गोकुल) गाँव की गलियों में जहाँ-तहाँ (सर्वत्र) श्रीहरि का नाम (ही) लेती है; पूरा गाँव उसे शिक्षा देकर थक गया, (किंतु वह किसी के) समझाने पर (भी) समझती नहीं है। (सच तो यह है कि अपने मन की बात) वह किससे कहे और कौन (उसकी बात) सुने? शरीर की स्मृति किसे है, जिसके कारण (मन में) संकोच (लज्जा का अनुभव) हो? किसे मार्ग-कुमार्ग का डर है? कौन श्रेष्ठ है और कौन नीच? (इसका ज्ञान किसे है?) उसका मुँह (प्रेम के आवेश से) चमक रहा है, शरीर की सँभाल भी है नहीं, ऐसा लगता है मानो वह मदिरा पीकर मतवाली हो रही है। डगमगाते (लड़खड़ाते हुए) पैर जहाँ-तहाँ धरती है और ललाट पर अलकें बिखरी हैं। (जैसे) मन्दिर में (फूस की झोपड़ी के भीतर) जलते हुए दीपक को बाहर कोई नहीं देख पाता; (किंतु मढ़ैया के किसी एक) तिनके से छू जाने पर (आग लग जाने पर) वह जब जल उठता है, तब भला, कैसे छिपा रह सकता है (ऐसे ही उसके ह्रदय का गुप्त प्रेम अब प्रकट हो गया) । लज्जा नदी के समान है और गुरुजनों का संकोच (उसकी) गम्भीर धारा। दोनों कुल (पितृकुल और पतिकुल) उसके दोनों किनारे हैं, जिनकी कोई सीमा नहीं है; (फिर भी उस अपार लज्जा-नदी को उसे) पार करने में देर नहीं लगी। (जैसे) सरोवर के पास की नदी अपने वेग से यदि तालाब की सीमा को तोड़कर तालाब में से होकर बहने लगे तो (उस सरोवर का) नाम मिटकर वह भी नदी हो जाता है। (अब भला दोनों के) जल का पृथक्करण कौन कर सकता है? (इसी प्रकार वह श्याम से एकाकार हो गयी है, अब कोई उसे अलग नहीं कर सकता।) ब्रम्हा ने (चित्त रूपी) बर्तन बहुत छोटा (छिछला) बनाया और (मोहन की) लीला अपार सागर-(के समान) । (फलतः) उलटकर (वह) उसी (लीला सागर) – में मग्न हो (डूब) गया, (अब भला, उसे) निकालने वाला कौन है? श्रीनन्दनन्दन ने मधुर वंशी बजाकर उसका चित्त आकर्षित कर लिया; (फल यह हुआ कि) जिस लज्जा से संसार लज्जित हुआ करता है, (वह) लज्जा स्वयं (उस गोपी के प्रेम के आगे) लज्जित हो गयी। सूरदासजी कहते हैं कि गोपिका मेरे स्वामी के साथ प्रेम में निमग्न हो गयी। उसके कान, नेत्र, मुख और नाक (आदि इन्द्रियगोलक) उसी प्रकार निकम्मे हो गये, जैसे साँप के केंचुली छोड़ देने पर उसमें बने हुए नेत्र आदि के चिन्ह निकम्मे होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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