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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिलावल[325] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-अरी सखी! मैंने (अपने) इन नेत्रों से हार मान ली है। (यद्यपि) मैंने इन्हें अनेक बार संकोच रूपी छड़ी से मारा; पर ये (उसे) मानते नहीं। श्यामसुन्दर का दर्शन करने के लिये (ये) बार-बार हठ करते रहते हैं, डरते नहीं। स्वयं तो गये ही, (अब) मुझसे भी कहते हैं— ‘चल व्रजराज से मिल।’ मैं इन्हें घूँघट रूपी घर में रहने के लिये बहुत समझाती रहती हूँ, पर ये (वहाँ) रहते (ही) नहीं; पलक रूपी किवादोंज को तोड़कर उठकर भाग जाते हैं। तभी से (मैं) चुप हुई (इनका) यह रंग-ढंग देखती रहती हूँ। हमारे स्वामी जहाँ-जहाँ रहते (जाते) हैं, वहाँ-वहाँ ये भी साथ रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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