अदभुत जस बिस्तार करन कौं हम जन कौ बहु हेत।
भक्त-पावन कोउ कहत न कबहूँ, पतित-पावन कहि लेत।
जय अरु विजय कथा नहिं कछुवै, दसमुख-वध-विस्तार।
जद्यपि जगत-जननि कौ हरता, सुनि सब उतरत पार।
सेसनाग के ऊपर पोढ़त, तेतिक नाहिं बड़ाई।
जातुधानि-कुच-गर भर्षत तब, तहाँ पूनँता पाई।
धर्म कहैं, सर-सयन गंग-सुत, तेतिक नाहिं सँतोष।
सुत सुमिरत आतुर द्विज उधरत नाम भयौ निर्दोष।
धर्म-कर्म-अधिकारिनि सौं कछु नाहिं न तुम्हरौ काज।
भू-भर-हरन प्रगट तुम भूतल, गावत संत-समाज।
भार-हरन बिरुदावली तुम्हरी मेरे क्यौं न उतारौ ?
सूरदास-सत्कार किए तैं ना कछु घटै तुम्हारौ।।।215।।
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