अति बिपरीत तृनावर्त आयौ।
बात-चक्र मिस ब्रज ऊपर परि, नंद-पौरि कैं भीतर वायौ।
पौढ़े स्याम अकेले आँगन, लेत उड़यौ, आकास चढ़ायौ।
अंधाधुंध भयौ सब गोकुल, जो जहँ मह्यौ सो तहीं छपायौ।
जसुमति धाइ आइ जो देखै, स्याम-स्याम कहि टेर लगायौ।
धावहु नंद गोहारि लगौ किन, तैरौ सुत अँधवाह उड़ायौ।
इहि अंतर अकास तैं आवत, परबत सम कहित सबनि बतायौ।
मारयो असुर सिला सौं पटक्यौ, आपु चढ़यौ ता ऊपर भायौ।
दौरे नंद, यसोदा दौरी, तुरतहिं लै हित कंठ लगायौ।
सूरदास यह कहति जसोदा, ना जानौं बिधनहीं का भायौ।।77।।