अंतरजामी श्री रघुबीर।
करुनासिंधु अकाम कल्पतरु, जानत जन की पीर।।
बालि त्रास कपि बसत विषम बन, व्याकुल सकल सरीर।
सो सुग्रीव कियौ कपिपति प्रभु, मेटि महा रिपु भीर।।
दसमुख दुसह क्रोध दावानल, पुंजउपाधि समीर।
तिहिं जर जरत बिभीषन राख्यौ, सीचि कृपा वर नीर।।
कहि कहि कथा प्रेम पूरन जस, जुग जुग जग सब तीर।
भूरि नाम कल कियौ ‘सूर’ प्रभु, रामचंद्र रनधीर।। 2 ।।