अंग श्रृंगार सँवारि नागरी, सेज रचति हरि आवैंगे।
सुमन सुगंध रचत तापर लै, निरखि आपु सुख पावैंगे।।
चंदन अगरु कुमकुमा मिस्रित, स्रम तै अंग चढ़ावैंगे।
मैं मन साध करौगी सँग मिलि, वै मन काम पुरावैंगे।।
रति-सुख-अंत भरौगी आलस, अंकम भरि उर लावैंगे।
रस भीतर मै मान करौगी, वै गहि चरन मनावैंगे।।
आतुर जब देखौं पिय नैननि, बचन रचन समुझावैंगे।
'सूर' स्याम जुवती-मन-मोहन, मेरे मनहि चुरावैंगे।।2708।।