अंग-अभूषन जननि उतारति।
दुलरी ग्रीव माल मोतिनि की, लै केयूर भुज स्याम निहारति।
छुद्रावली उतारति कटि तै सैंति धरति मनहीं मन वारति।
रोहिनि भोजन करौ चँड़ाई बार-बार कहि-कहि करि आरति।
भूखे भए स्याम हलधर दोउ, यह कहि अंतर प्रेम बिचारति।
सूरदास प्रभु मातु जसोदा, पट लैंं, दुहुनि अंग-रज झारति।।512।।