अँखियाँ हरि कै हाथ बिकानी।
मृदु मुसुकानि मोल इनि लीन्ही, यह सुनि सुनि पछितानी।।
कैसै रहति रही मेरै बस, अब कछु औरै भाँति।
अब वै लाज मरतिं मोहिं देखत, बैठी मिलि हरि पाँति।।
सपने की सी मिलनि करति हैं, कब आवतिं कब जातिं।
'सूर' मिली ढरि नंदनँदन कौ, अनंत नहीं पतियातिं।।2402।।