कृष्णदास कविराज
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पूरा नाम | कृष्णदास कविराज |
जन्म भूमि | झामटपुर ग्राम, बर्द्धमान ज़िला, पश्चिम बंगाल |
कर्म भूमि | पश्चिम बंगाल, भारत |
मुख्य रचनाएँ | 'गोविंदलीलामृत', चैतन्यचरितामृत |
भाषा | संस्कृत, बांग्ला |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | चैतन्य महाप्रभु, गौड़ीय सम्प्रदाय, वृन्दावन |
अन्य जानकारी | कृष्णदास कविराज अत्यन्त उच्चकोटि के प्रेमी, अद्वितीय वैरागी एवं महान भक्त थे। ऐसे भक्तों से निश्चय जगत का कल्याण होता रहा है एवं होता रहेगा। |
कृष्णदास कविराज (Krishnadas Kaviraj) बांग्ला भाषा के वैष्णव कवि थे। पश्चिम बंगाल में उनका वही स्थान है, जो उत्तर भारत में तुलसीदास का। इनका जन्म बर्द्धमान ज़िले के झामटपुर नामक ग्राम में एक कायस्थ कुल में हुआ था। इनकी जन्म मृत्यु आदि की तिथि के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं, किन्तु कुछ विद्वान इनका समय 1496 से 1598 ई. और कुछ 1517 से 1615 ई. मानते हैं।
द्रवति शिखरवृन्देऽचंचले वेणुनादैर्दिशि दिशि विसरन्तीर्निर्झराप: समीक्ष्य।
तृषितखगमृगाली गन्तुमुत्का जडांगै: स्वयमपि सविधाप्ता नैव पातुं समर्था।।[1]
परिचय
नवद्वीप में श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रेम की जो महान सरिता बहायी, उसी दिव्य प्रेमसलिला में अपने को निमज्जित कर उसमें अपने को सर्वथा डुबा देने तथा उसी में लय हो जाने के लिये उस समय अनेकों महापुरुषों ने जन्म ग्रहण किया। इन्हीं परम सौभाग्य सम्पन्न प्रेमी महापुरुषों में एक थे- बँगला ‘चैतन्य-चरितामृत’ के रचयिता प्रसिद्ध वैष्णव कवि भक्तराज श्री कृष्णदास जी। ये बर्दवान जिले के झामटपुर नामक छोटे गाँव के वैद्यवंश में अवतरित हुए थे। इन्होंने बालकपन में ही संस्कृत भाषा पढ़ी एवं उसमें धुरन्धर विद्वान बन गये। ये शैशव से ही अत्यन्त धर्मानुरागी थे। इनके माता-पिता श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्त थे एवं ये भी बालकपन से ही श्री चैतन्य के गुणों को सुन चैतन्य भक्त बन गये थे। ज्यों-ज्यों इनकी उम्र बढ़ी, इनका भक्तिभाव एवं विषय-वैराग्य भी बढ़ता गया। रात-दिन ये श्रीकृष्ण नाम जप में ही व्यतीत करते।[2]
'कृष्ण' नाम का जाप
एक दिन इन्हें स्वप्न में श्री नित्यानन्द जी ने दर्शन दिये तथा संसाराश्रम छोड़ने की अनुमति दी। तभी कृष्णदास भगवान की प्रेम लीलास्थली वृन्दावन की ओर चल पड़े। कृष्णदास जी के जन्म लेने के समय से पूर्व ही श्री चैतन्य लीला संवरण कर चुके थे। अत: ये परम वीतरागी श्री चैतन्य के प्रिय शिष्य रघुनाथदास जी से मिले एवं उन्हीं के शरणापन्न हुए। रघुनाथदास जी से दीक्षा ले इन्होंने अपना अवशिष्ट समय प्रेमभक्ति-शिक्षा, शास्त्रों की आलोचना, महाप्रभु श्री चैतन्यदेव के पावन चरित्र के अनुशीलन एवं श्रीकृष्ण नाम जप में ही व्यतीत किया।
रघुनाथदास के प्रिय शिष्य
श्री रघुनाथदास जी श्री चैतन्यदेव के अत्यन्त प्रिय शिष्यों में से थे। महाप्रभु की अन्तिम अवस्था में उनके पास श्रीस्वरूप गोस्वामी एवं रघुनाथदास ही रहते तथा इनकी सेवा-शुश्रुषा करते थे। महाप्रभु के दिव्य महाभाव की उच्च अवस्था, उनकी अपूर्व प्रेममयी स्थिति एवं उनके मन: पटल पर उठती श्रीकृष्ण प्रेम की दिव्य तरंगों को श्री स्वरूप गोस्वामी उनकी कृपा से जान लिया करते थे। वे यह बस इनको बता दिया करते थे- अत: श्री रघुनाथदास जी श्री चैतन्यदेव के प्रेम-रहस्य के अत्यन्त मर्मज्ञ थे। इन श्री रघुनाथदास जी ने यह सभी प्रेम-रहस्य अपने प्रिय शिष्य कृष्णदास पर प्रकट किया। इस प्रकार गुरुकृपा से इन्हें प्रेम-रहस्य का दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ।
'चैतन्य चरितामृत' की रचना
श्री चैतन्य देव की अन्तरंग लीलाओं का प्रकाश श्री चैतन्य के लीला संवरण के पश्चात वृन्दावन में किसी-किसी को ही था। उनके सभी भक्तों को चैतन्य प्रेम-रहस्य का ज्ञान हो, इसलिये श्री कृष्णदास जी ने अपने अन्तिम समय में बँगला भाषा में अत्यन्त ही सुललित छन्दों में ‘श्रीचैतन्य चरितामृत’ नामक काव्य ग्रन्थ का निर्माण किया। कहते हैं उस समय वे अत्यन्त ही वृद्ध हो चुके थे। उनका समस्त अंग जर्जर था। न आँखों से देखा जाता था न कानों से पूरी तरह सुना जाता। मुख से उच्चारण भी पूरा नहीं होता था। किंतु फिर भी इन्होंने ग्रन्थ लिखा। इनसे किसी ने पूछा भी कि ‘आप इसे कैसे लिखवा रहे हैं?' इन्होंने उत्तर दिया कि ‘मेरी क्या सामर्थ्य है जो इस ग्रन्थ को लिखूँ; इसे तो साक्षात मदनगोपाल लिखा रहे हैं।'
कृष्णदास कविराज के श्रीचैतन्य चरितामृत ग्रन्थ में प्रेम-रहस्य की अत्यन्त गोपनीय बातों का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन किया गया है और सत्य ही इसे मन लगाकर पढ़ने से अन्त: करण में दिव्य श्रीकृष्ण प्रेम का उदय होना सम्भव है। भक्ति साहित्य का यह सर्वोत्तम ग्रन्थ है। उत्तर भारत में ‘रामचिरतमानस’ का जैसा सम्मान है, वैसा ही बंगाल में ‘श्रीचैतन्यचरितामृत’ का है।
- संस्कृत के असाधारण विद्वान
इसके अतिरिक्त इन्होंने संस्कृत भाषा में वैष्णवाष्टक, गोविन्द-लीलामृत, कृष्णकर्णामृत की सारंगरंगदा टीका की है। इनके ग्रन्थों से झलकता है कि ये संस्कृत के भी असाधारण विद्वान थे।
प्रचलित किंवदंति
भावुक भक्तों में यह किंवदंति प्रचलित है कि ये श्रीराधारानी की किसी मंजरी के अवतार थे। इन्होंने श्रीचैतन्य चरितामृत में एक ऐसा प्रयोग किया है जिसे तत्कालीन वैयाकरण खोजने पर भी किसी व्याकरण में नहीं पा सके। कहते हैं उस समय उनमें से किसी एक प्रमुख ने इनकी तीव्र आलोचना की तो श्रीराधारानी ने स्वप्न में उसे बताया कि ये मेरी मंजरी के अवतार हैं- ये इतनी बड़ी भूल नहीं कर सकते। आप उस व्याकरण को देखिये, उसमें इस प्रकार का प्रयोग है। उन विद्वान ने जब वह व्याकरण देखा तब सत्य ही उन्हें वह प्रयोग मिल गया।
- कृष्णदास कविराज अत्यन्त उच्चकोटि के प्रेमी, अद्वितीय वैरागी एवं महान भक्त थे। ऐसे भक्तों से निश्चय जगत का कल्याण होता रहा है एवं होता रहेगा।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गोविन्दलीलामृतम्
- ↑ 2.0 2.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 589
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