होली

होली
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अन्य नाम 'डोल यात्रा' या 'डोल पूर्णिमा' (पश्चिम बंगाल), 'कामन पोडिगई' (तमिलनाडु), 'होला मोहल्ला' (पंजाब), 'कामना हब्बा' (कर्नाटक), 'फगुआ' (बिहार), 'रंगपंचमी' (महाराष्ट्र), 'शिमगो' (गोवा), 'धुलेंडी' (हरियाणा), 'गोविंदा होली' (गुजरात), 'योसांग होली' (मणिपुर) आदि।
अनुयायी हिन्दू, भारतीय, भारतीय प्रवासी
उद्देश्य धार्मिक निष्ठा, सामाजिक एकता, मनोरंजन
प्रारम्भ पौराणिक काल
तिथि फाल्गुन पूर्णिमा
उत्सव रंग खेलना, हुड़दंग, मौज-मस्ती
अनुष्ठान होलिका दहन
प्रसिद्धि लट्ठमार होली (बरसाना)
संबंधित लेख कृष्ण, राधा, गोपी, बरसाना, मथुरा, ब्रज
अन्य जानकारी 'होली' बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप 'होलाका' था। भारत के पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। 'होलाका' उन बीस क्रीड़ाओं में एक है, जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में भी हुआ है, जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है।

होली भारत का प्रमुख त्योहार है। होली जहाँ एक ओर सामाजिक एवं धार्मिक त्योहार है, वहीं रंगों का भी त्योहार है। बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं। इसमें जातिभेद-वर्णभेद का कोई स्थान नहीं होता। इस अवसर पर लकड़ियों तथा कंडों आदि का ढेर लगाकर 'होलिका पूजन' किया जाता है, फिर उसमें आग लगायी जाती है। पूजन के समय मंत्र उच्चारण किया जाता है।

इतिहास

प्रचलित मान्यताओं के अनुसार यह त्योहार दैत्यराज हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है। पुराणों में वर्णित है कि हिरण्यकशिपु की बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्य अग्नि स्नान करती थी और जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपने राज्य में यह घोषणा करवा रखी थी कि सभी प्रजा का भगवान वही है, इसीलिए उसी की पूजा की जाए न की विष्णु की। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से अपने पुत्र प्रह्लाद को, जो कि भगवान विष्णु का परम भक्त था, गोद में लेकर अग्नि स्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद अग्नि में जल जाएगा तथा होलिका बच जाएगी। होलिका ने ऐसा ही किया, किंतु होलिका जल गयी और प्रह्लाद बच गये। होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी।

प्राचीन शब्दरूप

यह बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप 'होलाका' था।[1] भारत में पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। जैमिनि एवं शबर का कथन है कि 'होलाका' सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए। काठकगृह्य[2] में एक सूत्र है 'राका होला के', जिसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने यों की है- 'होला एक कर्म-विशेष है, जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका[3] देवता है।'[4] अन्य टीकाकारों ने इसकी व्याख्या अन्य रूपों में की है। 'होलाका' उन बीस क्रीड़ाओं में एक है, जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के 'कामसूत्र'[5] में भी हुआ है, जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि[6] ने बृहद्यम का एक श्लोक उद्भृत किया है, जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी[7] कहा गया है। लिंग पुराण में आया है- 'फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति, ऐश्वर्य देने वाली है।' वराह पुराण में आया है कि यह 'पटवास-विलासिनी'[8] है।[9]

होलिका

हेमाद्रि[10] ने भविष्योत्तर[11] से उद्धरण देकर एक कथा दी है। युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है,
प्रह्लाद को गोद में लिये बैठी होलिका
प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और 'होलाका' क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है। कृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु के विषय में एक किंवदंती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र-शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन 'अडाडा' या 'होलिका' कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति ब्राह्मणों, भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे पुराण में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।'[12]

होलिका दहन

होलिका दहन पूर्ण चंद्रमा (फाल्गुन पूर्णिमा) के दिन ही प्रारंभ होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। इसके एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं। इसे 'अलाव को होली' कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर नृत्य व संगीत का आनन्द लेते हैं।

होली और राधा-कृष्ण की कथा

भगवान श्रीकृष्ण तो सांवले थे, परंतु उनकी आत्मिक सखी राधा गौरवर्ण की थी। इसलिए बालकृष्ण प्रकृति के इस अन्याय की शिकायत अपनी माँ यशोदा से करते तथा इसका कारण जानने का प्रयत्न करते। एक दिन यशोदा ने श्रीकृष्ण को यह सुझाव दिया कि वे राधा के मुख पर वही रंग लगा दें, जिसकी उन्हें इच्छा हो। नटखट श्रीकृष्ण यही कार्य करने चल पड़े। आप चित्रों व अन्य भक्ति आकृतियों में श्रीकृष्ण के इसी कृत्य को जिसमें वे राधा व अन्य गोपियों पर रंग डाल रहे हैं, देख सकते हैं। यह प्रेममयी शरारत शीघ्र ही लोगों में प्रचलित हो गई तथा होली की परंपरा के रूप में स्थापित हुई। इसी ऋतु में लोग राधा व कृष्ण के चित्रों को सजाकर सड़कों पर घूमते हैं। मथुरा की होली का विशेष महत्त्व है, क्योंकि मथुरा में ही कृष्ण का जन्म हुआ था।

मथुरा होली के विभिन्न दृश्य

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ब्रज में फाग उत्सव

फाल्गुन के माह 'रंगभरनी एकादशी' से सभी मन्दिरों में फाग उत्सव प्रारम्भ होते हैं, जो 'दौज' तक चलते हैं। दौज को बल्देव (दाऊजी) में 'दाऊजी का हुरंगा' होता है। बरसाना, नन्दगांव, जाव, बठैन, जतीपुरा, आन्यौर आदि में भी होली खेली जाती है। यह ब्रज का विशेष त्योहार है। यों तो पुराणों के अनुसार इसका सम्बन्ध पुराण कथाओं से है और ब्रज में भी होली इसी दिन जलाई जाती है। इसमें यज्ञ रूप में नवीन अन्न की बालें भूनी जाती हैं। प्रह्लाद की कथा की प्रेरणा इससे मिलती हैं। होली दहन के दिन कोसी के निकट फालैन गांव में 'प्रह्लाद कुण्ड' के पास 'भक्त प्रह्लाद का मेला' लगता है। यहाँ तेज़ जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव पण्डा निकलता है।

श्रीकृष्ण राधा और गोपियों-ग्वालों के बीच की होली के रूप में गुलाल, रंग, केसर की पिचकारी से ख़ूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल नवमी बरसाना से होता है। वहाँ की 'लठामार होली' विश्व प्रसिद्ध है। दसवीं को ऐसी ही होली नन्दगांव में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। धूलेंड़ी को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके पहले हुरंगे चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ लाठियों, कोड़ों आदि से पुरुषों को घेरती हैं। यह सब धार्मिक वातावरण होता है। होली या होलिका आनन्द एवं उल्लास का ऐसा उत्सव है, जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। उत्सव मनाने के ढंग में कहीं-कहीं अन्तर पाया जाता है। पश्चिम बंगाल को छोड़कर होलिका-दहन सर्वत्र देखा जाता है। बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर 'कृष्ण-प्रतिमा का झूला' प्रचलित है किन्तु यह भारत के अधिकांश स्थानों में नहीं दिखाई पड़ता। इस उत्सव की अवधि विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न है। इस अवसर पर लोग बाँस या धातु की पिचकारी से रंगीन जल छोड़ते हैं या अबीर-गुलाल लगाते हैं। कहीं-कहीं अश्लील गाने भी गाये जाते हैं। इसमें जो धार्मिक तत्त्व है, वह है बंगाल में कृष्ण-पूजा करना तथा कुछ प्रदेशों में पुरोहित द्वारा होलिका की पूजा करवाना। लोग होलिका दहन के समय परिक्रमा करते हैं, अग्नि में नारियल फेंकते हैं, गेहूँ, जौ आदि के डंठल फेंकते हैं और इनके अधजले अंश का प्रसाद बनाते हैं। कहीं-कहीं लोग हथेली से मुख-स्वर उत्पन्न करते हैं।

मदनोत्सव

'दशकुमारचरित' में होली का उल्लेख 'मदनोत्सव' के नाम से किया गया है। वसंत काम का सहचर है, इसीलिए वसंत ऋतु में मदनोत्सव मनाने का विधान है। हमारे यहाँ काम को दैवी स्वरूप प्रदान कर उसे कामदेव के रूप में मान्यता दी गई है। यदि काम इतना विकृत होता तो भगवान शिव अपनी क्रोधाग्नि में 'काम' को भस्म करने के बाद उसे 'अनंग' रूप में फिर से क्यों जीवित करते ? इसका अर्थ यह है कि 'काम' का साहचर्य उत्सव मनाने योग्य है। जब तक वह मर्यादा में रहता है, उसे भगवान की विभूति माना जाता है। लेकिन जब वह मर्यादा छोड़ देता है तो आत्मघाती बन जाता है, शिव का तीसरा नेत्र (विवेक) उसे भस्म कर देता है। भगवान शिव द्वारा किया गया काम-संहार हमें यही समझाता है। त्योहार हमारी सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं। वे आशा, आकांक्षा, उत्साह एवं उमंग के प्रदाता हैं तथा मनोरंजन, उल्लास एवं आनंद देकर वे हमारे जीवन को सरस बनाते हैं। त्योहार युगों से चली आ रही हमारी सांस्कृतिक धरोहरों, परंपराओं, मान्यताओं एवं सामाजिक मूल्यों का मूर्त प्रतिबिंब हैं, जो हमारी संस्कृति का अंतरस्पर्शी दर्शन कराते हैं।

त्योहारों की इस प्रथा ने ही भारत को मानवभूमि से देवभूमि बना दिया है। कालिदास ने मानव को उत्सव प्रेमी बताया है- उत्सवप्रिया खलु मनुष्या:! उत्सव मानव जीवन में उल्लास एवं आनंद की सृष्टि करते हैं। सत्, चित, आनंद रूपी त्रिगुणात्मक ब्रह्मा का एक तत्त्व है- आनंद। आनंद-उल्लास मानव के जीवन में मंगल एवं सौभाग्य को आमंत्रित करते हैं। होली वसंत ऋतु का यौवनकाल है, ग्रीष्म के आगमन का सूचक! यह 'नवान्नवेष्टि यज्ञ' भी कहलाता है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्राचीन आर्यजन नए गेहूँ और जौ की बालियों से अग्निहोत्र का प्रारंभ करते थे। कर्मकांड परंपरा में इसे 'यव ग्रहण यज्ञ' का नाम दिया गया। अनाज की बालियों को संस्कृत में 'होलक' कहते हैं। देश के उत्तरी भाग में आज भी चने की भुनी बालियों को होला कहते हैं। वसंत में सूर्य दक्षिणायण से उत्तरायण में आ जाता है। फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु भी 'अमृत प्राण' हो जाती है। इसलिए होली के पर्व को 'मन्वन्तरांभ' भी कहा गया है। होली के साथ अनेक कथाएं जुड़ी हैं। पहली कथा प्रह्लाद एवं होलिका से संबंधित है। प्रह्लाद का पिता हिरण्यकशिपु नास्तिक था। उसने अपने राज्य में ईश्वर की पूजा करने पर प्रतिबंध लगा रखा था। किंतु उसका पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। अनेक कष्ट सहकर भी उसने ईश्वर भक्ति नहीं छोड़ी।

बरसाना होली के विभिन्न दृश्य

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैमिनि, 1।3।15-16
  2. काठकगृह्य, 73,1
  3. पूर्णचन्द्र
  4. राका होलाके। काठकगृह्य (73।1)। इस पर देवपाल की टीका यों है: 'होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते। तत्र होला के राका देवता। यास्ते राके सुभतय इत्यादि।'
  5. कामसूत्र, 1।4।42
  6. काल, पृ. 106
  7. आलकज की भाँति
  8. चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली
  9. लिंगपुराणे। फाल्गुने पौर्णमासी च सदा बालविकासिनी। ज्ञेया फाल्गुनिका सा च ज्ञेया लोकर्विभूतये।।
    वाराहपुराणे। फाल्गुने पौर्णिमास्यां तु पटवासविलासिनी। ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये॥ हेमाद्रि (काल, पृ. 642)।
    इसमें प्रथम का.वि. (पृ. 352) में भी आया है जिसका अर्थ इस प्रकार है-बालवज्जनविलासिन्यामित्यर्थ:
  10. व्रत, भाग 2, पृ. 174-190
  11. भविष्योत्तर, 132।1।51
  12. पुस्तक- धर्मशास्त्र का इतिहास-4 | लेखक- पांडुरंग वामन काणे | प्रकाशक- उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान

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