हे राधे! हे श्याम-प्रियतमे! हम हैं अतिशय पामर, दीन ।
भोग-रागमय, काम-कलुषमय मन प्रपच-रत, नित्य मलीन ॥
शुचितम, दिव्य तुम्हारा दुर्लभ यह चिन्मय रसमय दरबार ।
ऋषि-मुनि-जानी-योगीका भी नहीं यहाँ प्रवेश-अधिकार ॥
फिर हम जैसे पामर प्राणी कैसे इसमें करें प्रवेश ।
मनके कुटिल, बनाये सुन्दर ऊपरसे प्रेमी का वेश ॥
पर राधे! यह सुनो हमारी दैन्यभरी अति करुण पुकार ।
पड़े एक कोनेमें जो हम देख सकें रसमय दरबार ॥
अथवा जूती साफ करें, झाड़ू दें-सौंपो यह शुचि काम ।
रजकणके लगते ही होंगे नाश हमारे पाप तमाम ॥
होगा दम्भ दूर, फिर पाकर कृपा तुम्हारी का कण-लेश ।
जिससे हम भी हो जायेंगे रहने लायक तव पद-देश ॥
जैसे-तैसे हैं, पर स्वामिनि! हैं हम सदा तुम्हारे दास ।
तुम्हीं दया कर दोष हरो, फिर दे दो निज पद-तलमें वास ॥
सहज दयामयि! दीनवत्सला! ऐसा करो स्नेह का दान ।
जीवन-मधुप धन्य हो जिससे कर पद-पङ्कज-मधु का पान ॥