स्वामी के शुचि चरण-कमल में सादर शीश झुकाऊँ मैं।
दुखियों के संताप-हरण की शक्ति विलक्षण पाऊँ मैं॥
दो ऐसा वरदान, दयामय! दीनों को अपनाऊँ मैं।
सारा सुख दुखियों को देकर, उनका सुख बन जाऊँ मैं॥
छाता बनकर, मेह-घाम से उनकी देह बचाऊँ मैं।
कंकड़-काँटे लगें नहीं, उनकी जूती बन जाऊँ मैं॥
अंधों की लकड़ी बन करके, सीधे मार्ग चलाऊँ मैं।
भटक रहे जो लक्ष्य-भुलाकर, उनको पथ दिखलाऊँ मैं॥
गुण-समूह को प्रकट करूँ, अवगुण को सदा दुराऊँ मैं।
धागा बनूँ, अंग निज देकर, सबके छिद्र छिपाऊँ मैं॥
पुत्रहीन का सुपूत बनकर, उसको सुख पहुँचाऊँ मैं।
जिसके कोई नहीं, उसी का निज जन ही बन जाऊँ मैं॥
जीवनहीन प्राणियों को, निज जीवन सौंप, जिलाऊँ मैं।
निष्प्राणों में प्राण फ़ूँककर, दे अवलम्ब उठाऊँ मैं॥