स्वामी अनन्ताचार्य

स्वामी अनन्ताचार्य
स्वामी अनन्ताचार्य
पूरा नाम स्वामी अनन्ताचार्य
जन्म संवत 1930
जन्म भूमि मद्रास (वर्तमान चैन्नई)
मृत्यु स्थान छपरा
कर्म भूमि भारत
प्रसिद्धि वैष्णव संत
विशेष योगदान स्वामी अनन्ताचार्य ने सम्पूर्ण भारत में भ्रमण करके सैकड़ों देवमन्दिरों और रामानुजकूटों का निर्माण कराया था। मारवाड़ के दिव्य देश और बम्बई की फानसवाड़ी के श्रीवेंकटेश मन्दिर के लिये तो इनको अत्यधिक त्याग और कष्ट उठाना पड़ा था।
नागरिकता भारतीय
उपाधि वेदान्तवारिनिधि
अन्य जानकारी संस्कृत भाषा की कई पत्र-पत्रिकाएं भी स्वामी अनन्ताचार्य के तत्त्वावधान में निकली थीं। तात्पर्य यह कि उन्होंने भक्ति-प्रचार के लिये विभिन्न क्षेत्रों में सफलतापूर्वक कार्य किया था।

स्वामी अनन्ताचार्य (जन्म- संवत 1930) प्रसिद्ध वैष्णव संत थे। 'सनातनधर्म सभा' और 'वर्णाश्रमस्वराज्य संघ' के कई महाधिवेशनों में आप सम्मिलित हुए थे। इनका प्रकाण्ड पाण्डित्य देखकर कलकत्ता के विद्वानों ने इनको ‘वेदान्तवारिनिधि’ की उपाधि दी थी। उसी प्रकार विद्या-प्रचार के क्षेत्र में भी स्वामी अनन्ताचार्य के द्वारा पर्याप्त काम हुआ।

परिचय

स्वामी अनन्ताचार्य का जीवन बड़ा ही आदर्श था। इनका जन्म संवत 1930 की फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी शनिवार को मद्रास-प्रान्तान्तर्गत तिरुपति नामक स्थान में अपने नाना के यहाँ हुआ था। आपके पूर्वज, जिनके कारण आपको ‘प्रतिवादिभयंकर’ की उपाधि मिली, भगवान श्रीरामानुजाचार्य के सुपुत्र की दसवीं पीढी में थे। शिष्य-परम्परा के हिसाब से तो आठवीं पीढ़ी में ही आपका आविर्भाव हुआ था। अतः मूलपुरुष द्वारा स्थापित किये हुए जो 74 पीठ हैं, उनमें से 36 पीठों के ये अधीश्वर थे।

शिक्षा

जब अनन्ताचार्य की अवस्था पांच वर्ष की हुई, तभी ये पाठशाला में प्रविष्ट करा दिये गये थे और आठ वर्ष की अवस्था में इनका 'यज्ञोपवीत-संस्कार' सम्पन्न हुआ था। यज्ञापवीत-संस्कार हो जाने के बाद आपने वेदाध्ययन शुरू किया और ग्यारह वर्ष की अवस्था तक शठकोप-पाठशाला में पढ़ते रहे। तत्पश्चात् उभयवर्धिनी पाठशाला में प्रवेश हुआ। 17 वर्ष की अवस्था से लेकर 21 वर्ष की अवस्था तक अनन्ताचार्य ने अपने मामा श्रीरंगाचार्यजी के यहाँ दर्शन, वेदान्त, व्याकरण आदि शास्त्रों की पढ़ाई की तथा और भी अनेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। तदनन्तर प्रतिपादन विषयक योग्यता बढ़ाने के लिये उन्होंने ‘गीर्वाणविद्योल्लासिनी’ नामक सभा की स्थापना की।

योगदान

वैष्णव सम्मेलन की स्थापना भी स्वामी अनन्ताचार्य के ही कर-कमलों द्वारा हुई थी। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में भ्रमण करके सैकड़ों देवमन्दिरों और रामानुजकूटों का निर्माण कराया था। रोळ (मारवाड़) के दिव्य देश और बम्बई की फानसवाड़ी के श्रीवेंकटेश मन्दिर के लिये तो इनको अत्यधिक त्याग और कष्ट उठाना पड़ा था। इन दोनों मन्दिरों में क्रमशः इनको तीन लाख और आठ लाख की सम्पत्ति संग्रह करके लगानी पड़ी थी। भीलों की अशिक्षा देखकर स्वामी अनन्ताचार्य का दयार्द्र हृदय द्रवित हो गया था और उन्होंने उनके प्रान्तों में अनेक विद्यालय तथा छात्रावास बनवाये। धर्म प्रचार में भी आपने खूब भाग लिया। सनातनधर्म-सभा और वर्णाश्रमस्वराज्य-संघ के कई महाधिवेशनों में वे सम्मिलित हुए थे। उनका प्रकाण्ड पाण्डित्य देखकर कलकत्ता के विद्वानों ने इनको ‘वेदान्तवारिनिधि’ की उपाधि दी थी। उसी प्रकार विद्या-प्रचार के क्षेत्र में भी इनके द्वारा पर्याप्त काम हुआ था।

भक्ति प्रचार

सन 1918 में स्वामी अनन्ताचार्य ने ‘सुदर्शनयन्त्रालय’ की नींव डाली, जिसके द्वारा संस्कृत भाषा के अनेकानेक सुन्दर ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ। संस्कृत भाषा की कई पत्र-पत्रिकाएं भी स्वामी अनन्ताचार्य के तत्त्वावधान में निकली थीं। तात्पर्य यह कि उन्होंने भक्ति-प्रचार के लिये विभिन्न क्षेत्रों में सफलतापूर्वक कार्य किया था और आप एक प्रचुर साधन सम्पन्न आचार्य थे; परंतु फिर भी इनमें अहंभाव प्रायः नहीं था और न जीवन में कभी संग्रह की ओर ही इनका ध्यान गया था। बल्कि उन्होंने जो कुछ किया अथवा उनमें जितनी भी शक्तियां थीं, वे कीर्ति और यश की प्राप्ति के लिये नहीं, वरन् भगवत्सेवा के लिये थीं।

वैयक्तिक जीवन

स्वामी अनन्ताचार्य का वैयक्तिक जीवन तो इतना अल्पव्ययी और सीधा-सादा था कि इनका दर्शन करते ही प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों का स्मरण हो आता था और हृदय में सात्त्विकता आ जाती थी। जरा भी नहीं मालूम होता था कि वे इतने बड़े गद्दीधर हैं। वे सबसे दिल खोलकर मिलते थे। अन्तिम समय में स्वामी अनन्ताचार्य के उपदेशों का, जिनको सुनने के लिये सर्वत्र की जनता समुत्सुक रहा करती थी, एक मात्र विषय ‘भगवच्छरणागति’ रह गया था। संकीर्तन और भगवन्नाम-जप के माहात्म्य पर भी आप खूब बोलते थे। इन सब विषयों पर भाषण देते समय आप में जो तन्मयता आ जाती थी, उसे देखते ही बनता था। आज आपके अभाव का अनुभव कौन नहीं करता।[1]

वैकुण्ठवास

'श्रीरामानुज सम्प्रदाय' के आचार्य महान विद्वान भक्ति स्वरूप त्यागी महात्मा जगद्गुरु श्रीमद् अनन्ताचार्यजी स्वामी महाराज का वैकुण्ठवास छपरा में हुआ था। उस समय उनकी अवस्था 63 वर्ष की थी। आपके वैकुण्ठवास से श्रीवैष्णव समाज में जो स्थान रिक्त हुआ, उसकी पूर्ति होना बहुत ही कठिन है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लेखक- भक्त श्रीरामशरणदास जी

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