सुनिहि महावत बात हमारी।
बार बार संकर्षन भाषत, लेत नहिं ह्याँ तै गज टारी।।
मेरौ कह्यौ मानि रे मूरख, गज समेत तोहि डारौ मारी।
द्वारै खरे रहे है कबके, जनि रे गर्व करहि जिय भारी।।
न्यारौ करि गयंद तू अजहूँ, जान देहि कै आपु सँभारी।
'सूरदास' प्रभु दुष्टनिकंदन, धरनी भार उतारनकारी।।3052।।