सर्वातीत, सर्वविरहित -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा कृष्ण जन्म महोत्सव एवं जय-गान

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राग भीमपलासी - ताल कहरवा


सर्वातीत, सर्वविरहित, जो सर्व, सर्वमय, सर्वाधार।
सर्वब्यापक, सर्वात्मा जो, स्वयं सृष्टि, स्रष्टा, संहार॥
मायापति, नित मायाविरहित, ब्रह्म, ब्रह्मामय, ब्रह्माधार।
निर्गुण, सगुण निराकृति, नित्य, निरंजन दिव्य सगुण साकार॥
प्रकृति-विकृतिमय, व्यक्त, प्रकृतिगत पुरुष, विश्वमय, विश्वाकार।
अपरिवर्तन रूप, एकरस, नित वैचित्र्यपूर्ण संसार॥
ब्रह्मा-विष्णु-महेश रूप से करते जो लीला-विस्तार।
सरस्वती-लक्ष्मी-काली के विविध अनन्त प्रकट आकार॥
देश-काल-बन्धन-विरहित, जो देश-कालमय, कालातीत।
कालरूप विकराल, सुनाते नित विनाश के भैरव गीत॥
नित्य-‌अनन्त-‌असीम-‌अलौकिक, परम स्वतन्त्र ‘स्वयं भगवान’।
करते अन्तमयी-सी लीला, लौकिक, सीमित, कर्म प्रधान॥
‘अवतारी’ सब अवतारों के, सब के ‘अंशी’ नित्य, अनादि।
सभी ईश्वरों के ईश्वर, सब लोक-महेश्वर, सब के आदि॥
षोडशकलापूर्ण, सञ्चित-घन षडैश्वर्यसपन्न, उदार।
अज, अविनश्वर, चिन्मय भगवद्देहरूप, नित विगतविकार॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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