सरोवर में छिपे दुर्योधन के साथ युधिष्ठिर का संवाद

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 31वें अध्याय में सरोवर में छिपे दुर्योधन के साथ युधिष्ठिर के संवाद का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

युधिष्ठिर का दुर्योधन से संवाद

संजय कहते हैं- महाराज! भरतनन्दन! भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर उत्तम एवं कठोर व्रत का पालन करने वाले पाण्डुकुमार कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने जल में स्थित हुए आपके महाबली पुत्र से हंसते हुए से कहा- ‘प्रजानाथ सुयोधन! तुमने किस लिये पानी में यह अनुष्ठान आरम्भ किया है। सम्पूर्ण क्षत्रियों तथा अपने कुल का संहार करा कर आज अपनी जान बचाने की इच्छा से तुम जलाशय में घुसे बैठै हो। राजा सुयोधन! उठो और हम लोगों के साथ युद्ध करो।[1] ‘राजन! नरश्रेष्ठ! तुम्हारा वह पहले का दर्प और अभिमान कहाँ चला गया, जो डर के मारे जल का स्तम्भन करके यहाँ छिपे हुए हो? ‘सभा में सब लोग तुम्हें शूरवीर कहा करते हैं। जब तुम भयभीत होकर पानी में सो रहे हो, तब तुम्हारे उस तथा कथित शौर्य को मैं व्यर्थ समझता हूँ। राजन! उठो, युद्ध करो; क्योंकि तुम कुलीन क्षत्रिय हो, विशेषतः कुरुकुल की संतान हो अपने कुल और जन्म का स्मरण तो करो। ‘तुम तो कौरव वंश में उत्पन्न होने के कारण अपने जन्म की प्रशंसा करते थे। फिर आज युद्ध से डर कर पानी के भीतर कैसे घुसे बैठे हो?[2]

‘नरेश्वर! युद्ध न करना अथवा युद्ध में स्थिर न रह कर वहाँ से पीठ दिखाकर भागना यह सनातन धर्म नहीं है। नीच पुरुष ही ऐसे कुमार्ग का आश्रय लेते हैं। इससे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती। ‘युद्ध से पार पाये बिना ही तुम्हें जीवित रहने की इच्छा कैसे हो गयी? तात! रणभूमि में गिरे हुए इन पुत्रों, भाईयों और चाचे-ताऊओं को देखकर सम्बन्धियों, मित्रों, मामाओं और बन्धु-बान्धवों का वध कराकर इस समय तालाब में क्यों छिपे बैठे हो? ‘तुम अपने को शूर तो मानते हो, परंतु शूर हो नहीं। भरतवंश के खोटी बुद्धि वाले नरेश! तुम सब लोगों के सुनते हुए व्यर्थ ही कहा करते हो कि ‘मैं शूरवीर हूं’। ‘जो वास्तव में शूरवीर हैं, वे शत्रुओं को देखकर किसी तरह भागते नहीं हैं। अपने को शूर कहने वाले सुयोधन! बताओ तो सही, तुम किस वृत्ति का आश्रय लेकर युद्ध छोड़ रहे हो। ‘अतः तुम अपना भय दूर करके उठो और युद्ध करो।

सुयोधन! भाइयों तथा सम्पूर्ण सेना को मरवाकर क्षत्रिय धर्म का आश्रय लिये हुए तुम्हारे-जैसे पुरुष को धर्म सम्पादन की इच्छा से इस समय केवल अपनी जान बचाने का विचार नहीं करना चाहिये। ‘तुम जो कर्ण और सुबल पुत्र शकुनि का सहारा लेकर मोहवश अपने आप को अजर-अमर सा मान बैठे थे, अपने को मनुष्य समझते ही नहीं थे, वह महान पाप करके अब युद्ध क्यों नहीं करते? भारत! उठो, हमारे साथ युद्ध करो। तुम्हारे जैसा वीर पुरुष मोहवश पीठ दिखाकर भागना कैसे पसंद करेगा? ‘सुयोधन! तुम्हारा वह पौरुष कहाँ चला गया? कहाँ है वह तुम्हारा अभिमान? कहाँ गया पराक्रम? कहाँ है वह महान गर्जन-तर्जन? और कहाँ गया वह अस्त्र विद्या का ज्ञान? इस समय इस तालाब में तुम्हें कैसे नींद आ रही है? भारत! उठो और क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करो। ‘भरतनन्दन! हम सब लोगों को परास्त करके इस पृथ्वी का शासन करो अथवा हमारे हाथों मारे जाकर सदा के लिये रणभूमि में सो जाओ। ‘भगवान ब्रह्मा ने तुम्हारे लिये यही उत्तम धर्म बनाया है। उस धर्म का यथार्थ रूप से पालन करो। महारथी वीर! वास्तव में राजा बनो (राजोचित पराक्रम प्रकट करो)’।

दुर्योधन और युधिष्ठिर की बातचीत

संजय कहते हैं- महाराज! बुद्धिमान धर्म पुत्र युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर जल के भीतर स्थित हुए तुम्हारे पुत्र ने यह बात कही।[2] दुर्योधन बोला- महाराज! किसी भी प्राणी के मन में भय समा जाय, यह आश्चर्य की बात नहीं है; परंतु भरतनन्दन! मैं प्राणों के भय से भाग कर यहाँ नहीं आया हूँ। मेरे पास न तो रथ है और न तरकस। मेरे पाश्र्वरक्षक भी मारे जा चुके हैं। मेरी सेना नष्ट हो गयी और मैं युद्ध स्थल में अकेला रह गया था; इस दशा में मुझे कुछ देर तक विश्राम करने की इच्छा हुई। प्रजानाथ! मैं न तो प्राणों की रक्षा के लिये, न किसी भय से और न विषाद के ही कारण इस जल में आ घुसा हूँ। केवल थक जाने के कारण मैंने ऐसा किया है। कुन्तीकुमार! तुम भी कुछ देर तक विश्राम कर लो। तुम्हारे अनुगामी सेवक भी सुस्ता लें। फिर मैं उठ कर समरागंण में तुम सब लोगों के साथ युद्ध करूंगा।[3]

युधिष्ठिर ने कहा- सुयोधन! हम सब लोग तो सुस्ता ही सुके हैं और बहुत देर से तुम्हें खोज रहे हैं; इसलिये अब तुम उठो और यहीं युद्ध करो। संग्राम में समस्त पाण्डवों को मार कर समद्धिशाली राज्य प्राप्त करो अथवा रणभूमि में हमारे हाथों मारे जाकर वीरों को मिलने योग्य पुण्य लोकों में चले जाओ।

दुर्योधन बोला- कुरुनन्दन नरेश्वर! मैं जिनके लिये कौरवों का राज्य चाहता था, वे मेरे सभी भाई मारे जा चुके हैं। भूमण्डल के सभी क्षत्रिय शिरोमणियों का संहार हो गया है। यहाँ के सभी रत्न नष्ट हो गये हैं; अतः विधवा स्त्री के समान श्री हीन हुई इस पृथ्वी का उपभोग करने के लिये मेरे मन में तनिक भी उत्साह नहीं है। भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! मैं आज भी पाञ्चालों और पाण्डवों का उत्साह भंग करके तुम्हें जीतने का हौसला रखता हूँ। किंतु जब द्रोण और कर्ण शान्त हो गये तथा पितामह भीष्म मार डाले गये तो अब मेरी राय में कभी भी इस युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं रही। राजन! अब यह सूनी पृथ्वी तुम्हारी ही रहे। कौन राजा सहायकों से रहित होकर राज्य शासन की इच्छा करेगा? वैसे हितैषी सुहृदों, पुत्रों, भाइयों और पिताओं को छोड़ कर तुम लोगों के द्वारा राज्य का अपहरण को जाने पर कौन मेरे जैसा पुरुष जीवित रहेगा? भरतनन्दन! मैं मृगचर्म धारण करके वन में चला जाऊंगा। अपने पक्ष के लोगों के मारे जाने से अब इस राज्य में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। राजन! यह पृथ्वी, जहाँ मेरे अधिक से अधिक भाई बन्धु, घोड़े और हाथी मारे गये हैं, अब तुम्हारे ही अधिकार में रहे। तुम निश्चिन्त होकर इसका अपभोग करो। प्रभो! मैं तो दो मृग छाला धारण करके वन में ही चला जाऊंगा, जब मेरे स्वजन ही नहीं रहे, तब मुझे भी इस जीवन को सुरक्षित रखने की इच्छा नहीं है। राजेन्द्र! जाओ, जिसके स्वामी का नाश हो गया है, योद्धा मारे गये हैं और सारे रत्न नष्ट हो गये हैं, उस पृथ्वी का आनन्दपूर्वक उपभोग करो; क्योंकि तुम्हारी जीविका क्षीण हो गयी थी।[3]

युधिष्ठिर बोले- नरेश्वर! तुम जल में स्थित होकर आर्त पुरुषों के समान प्रलाप न करो। तात! चिडि़यों के चहचहाने के समान तुम्हारी यह बात मेरे मन में कोई अर्थ नहीं रखती है। सुयोधन! यदि तुम इसे देने में समर्थ होते तो भी मैं तुम्हारी दी हुई इस पृथ्वी पर शासन करने की इच्छा नहीं रखता। राजन! तुम्हारी दी हुई इस भूमि को मैं अधर्मपूर्वक नहीं ले सकता; क्षत्रिय के लिये दान लेना धर्म नहीं बताया गया है। तुम्हारे देने पर इस सम्पूर्ण पृथ्वी को भी मैं नहीं लेना चाहता। तुम्हें युद्ध में परास्त करके ही इस वसुधा का उपभोग करूंगा। अब तो तुम स्वयं ही इस पृथ्वी के स्वामी नहीं रहे; फिर इसका दान कैसे करना चाहते हो? राजन! जब हम लोग कुल में शान्ति बनाये रखने के लिये पहले धर्म के अनुसार अपना ही राज्य मांग रहे थे, उसी समय तुमने हमें यह पृथ्वी क्यों नहीं दे दी। नरेश्वर! पहले महाबली भगवान श्रीकृष्ण को हमारे लिये राज्य देने से इन्कार करके इस समय क्यों दे रहे हो? तुम्हारे चित्त में यह कैसा भ्रम छा रहा है? जो शत्रुओं से आक्रान्त हो, ऐसा कौन राजा किसी को भूमि देने की इच्छा करेगा? कौरव नन्दन नरेश! अब न तो तुम किसी को पृथ्वी दे सकते हो और न बलपूर्वक उसे छीन ही सकते हो। ऐसी दशा में तुम्हें भूमि देने की इच्छा कैसे हो गयी?[4]

मुझे संग्राम में जीत कर इस पृथ्वी का पालन करो। भारत! पहले तो तुम सूई की नोक से जितना छिद सके, भूमि का उतना सा भाग भी मुझे नहीं दे रहे थे। प्रजानाथ! फिर आज यह सारी पृथ्वी कैसे दे रहे हो? पहले तो तुम सूई की नोक बराबर भी भूमि नहीं छोड़ रहे थे, अब सारी पृथ्वी कैसे त्याग रहे हो? इस प्रकार ऐश्वर्य पाकर इस वसुधा का शासन करके कौन मूर्ख शत्रु के हाथ में अपनी भूमि देना चाहेगा? तुम तो केवल मूर्खतावश विवेक खो बैठे हो; इसीलिये यह नहीं समझते कि आज भूमि देने की इच्छा करने पर भी तुम्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा। या तो हम लोगों को परास्त करके तुम्हीं इस पृथ्वी का शासन करो या हमारे हाथों मारे जाकर परम उत्तम लोकों में चले जाओ। राजन! मेरे और तुम्हारे दोनों के जीते-जी हमारी विजय के विषय में समस्त प्राणियों को संदेह बना रहेगा। दुर्मते! इस समय तुम्हारा जीवन मेरे हाथ में है। मैं इच्छानुसार तुम्हें जीवन दान दे सकता हूं; परंतु तुम स्वेच्छा पूर्वक जीवित रहने में समर्थ नहीं हो। याद है न, तुमने हम लोगों को जला डालने के लिये विशेष प्रयत्न किया था। भीम को विषधर सर्पो से डसवाया, विष खिलाकर उन्हें पानी में डुबाया, हम लोगों का राज्य छीन कर हमें अपने कपट जाल का शिकार बनाया, द्रौपदी को कटु वचन सुनाये और उसके केश खींचे। पापी! इन सब कारणों से तुम्हारा जीवन नष्ट सा हो चुका है। उठो-उठो, युद्ध करो; इसी से तुम्हारा कल्याण होगा। नरेश्वर! वे विजयी वीर पाण्डव इस प्रकार वहाँ बारम्बार नाना प्रकार की बातें कहने लगे।[4]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-19
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 31 श्लोक 20-37
  3. 3.0 3.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 31 श्लोक 38-54
  4. 4.0 4.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 31 श्लोक 55-73

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